बँध
गया हूँ या
कि जैसे बिंध गया हूँ
पीड़ा
की गठरी हूँ या जग की दया हूँ
लोग कौतूहल
के जैसा देखते
हैं
है पुरातन
रूप या लगता
नया हूँ
एक ही घटना
की बारम्बारता है
स्वप्न
में हर रोज हाथी मारता
है
समय
से प्रति दिवस चलता युद्ध है
है अनिर्णित कौन जीता
हारता है
लक्ष्य
निश्चित है मगर पथ लापता है
किन्तु
पग हर रोज कुछ तो नापता है
सोचता
हूँ इस विषय पर बोल दूँ सच
समय
आने पर अधर क्यों काँपता है
आदमी
है भ्रमित संशय से भरा है
ज़िन्दा
है कहता मगर जैसे भरा है
ऐसी
स्थिति से उबरना चाहिए मन
आदमी
क्यों आदमी से ही डरा है
प्रेम ही
सबसे बड़ा झूठा
हुआ
हर
तरफ विश्वास है टूटा
हुआ
ऐसे में
कैसे चलेगा ये जगत
अपनापन
सबसे ही है रूठा हुआ
पवन
तिवारी
३/०४/२०२२
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