दुःख
निगल रहा है प्रतिभा को
बदली
ढंकती ज्यों सविता को
मन अलसाया – अलसाया है
पर ढूँढ रहा है कविता को
दुविधा
ने किया शिथिल पग को
मैं
चुका हुआ लगता जग
को
भीगे हुए पंखों से उड़ते
देखा
नहीं है शायद
खग को
कैसे
- कैसे अवसर आये
रोते
– रोते भी हैं गाये
यह
अपने धैर्य की सीमा
है
दुःख
के बादल बरसे
छाये
फिर
भी हम सक्रिय हैं पथ पर
जाना
निश्चित कविता के घर
साहित्य
प्रेम पहला अंतिम
संकट
कितना कैसी हो
डगर
अनुमान धता होंगे सारे
हम कितने भी
खारे होंगे
बिन
लवण स्वाद क्या पाओगे
इक दिन दृग
के तारे होंगे
पवन
तिवारी
०७/०४/२०२२
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