बिन
पढ़े ज़िन्दगी के पन्ने
पुस्तक
की समीक्षा करते हैं
कुछ
अपने ही
ऐसे अक्सर
सब बोझ तुम्हीं पे धरते हैं
कुछ
ऐसे भी स्वनाम धन्य
बिन
पढ़े भूमिका लिखते
हैं
कुछ
लोग सभा में अनिमंत्रित
सर्वाधिक
सज-धज दिखते हैं
अब ऐसा बुरा समय का
है
कुछ
लोग समय को धकियाते
अक्सर
विलम्ब से जाते
हैं
सब धंसकर उनसे बतियाते
उनकी
हाँ पर सबकी
नज़रें
उनकी
कुछ ऐसी धूम
रहे
वे जहाँ भी
आते - जाते हैं
सब आगे पीछे घूम
रहे हैं
जो समय के हैं पाबन्द बड़े
वे
जग में खड़े अकेले
हैं
जो आवारों
सा घूम रहे
उनके
संग
रेले मेले हैं
पवन
तिवारी
०९/०४/२०२२
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