अभिलषित
रह गयी अभिलाषा
अभ्यागत
सी मुझसे भाषा
ऋज
सा दिखने का अभिनय था
हो गयी विकीर्ण सारी आशा
अंतरतम छला गया मेरा
बिखरा
सपनों का निज डेरा
यह
तरुण बदन यह तरुण ह्रदय
चहुँ
दिशि से ठगा - ठगा घेरा
ये रूप बहुत बहकाते हैं
झूठे - झूठे शरमाते
हैं
जब
जाल में इनके फँसते हो
धीरे - धीरे तड़पाते हैं
तुम
भी लुब्धक सा सजग रहो
तुम
भी अनुपम से वचन कहो
सौरभ
बन कर रसपान करो
मत
थमो सदा खेचर सा बहो
पवन
तिवारी
२६/०४/२०२२
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