जीवन
 कुछ  ऐसे  भी  रोज  बिताता हूँ 
सो  के  चटाई
 पे  छत  से
बतियाता हूँ 
कोई
  सुनने   वाला    मेरे   गीत  नहीं
खुद
ही  गाकर  खुद  को
रोज सुनाता हूँ 
बंद
किवाड़ को रह - रह के खटकाता हूँ 
कभी-कभी
खिड़की को प्यार जताता हूँ 
मन
जब  थोड़ा - थोड़ा बोझिल होता है
चाय
की ख़ातिर चूल्हा  तभी जलाता हूँ 
भाव
जो  आयें  कापी कलम बुलाता हूँ
बड़े
ध्यान से जांघ पे रख लिखवाता हूँ 
कई  शब्द  जब
 हिय सहलाने लगते हैं 
लिखते
- लिखते भी तब थोड़ा गाता हूँ 
कभी
कभी मैं  खुद के पास  भी आता हूँ 
साहस
  देता  हूँ    धीरे   समझाता
  हूँ
समय
कहाँ कब रुकता या कि टिकता है 
थपकी
 दे  दे  कर  खुद को बतलाता हूँ 
परेशान
मन  को  थोड़ा  भटकाता हूँ  
बहुरेंगे  दिन शपथ तुम्हारी खाता हूँ 
इक
दिन उच्च शिखर पर यश के बैठोगे
ऐसा
कह करके  मन को बहलाता हूँ 
अब
दिन आया बिन माँगे सब पाता हूँ 
सबके
 हिय पर बस यूँ ही छा जाता हूँ 
यह
सिद्धि का खेल समय का खेल हुआ 
प्रतिद्वंदी
 से  दुश्मन  तक  को
भाता हूँ 
पवन
तिवारी 
०८/०५/२०२२
 
 
 
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