कहेगा
क्या जग इसके कारण फँसते हैं
संशय
लोक लाज से भी हम धँसते हैं
जो
अपनी सुनते अपने ढंग से
जीते
सुख
संतोष साथ में उनके बसते
हैं
पीड़ा
में भी झूठ - मूठ
का हँसते हैं
अंतरतम
की ग्रीवा को निज कसते हैं
निज
स्वभाव के उलट आचरण हैं करते
इसीलिये
दुःख बारी – बारी डसते हैं
उम्र
से कुछ ज्यादा ही भारी बस्ते हैं
लोग
वस्तुओं से भी ज्यादा सस्ते हैं
थोड़ा
सोच समझकर श्रम का अस्त्र गहें
फिर
जीवन को मिलते अच्छे रस्ते हैं
बातें
तो हम भी कुछ अच्छी करते हैं
पर
जीवन में सही सही नहीं धरते हैं
जब
भी अच्छी बातें जीवन में लाते
अपने
क्या अन्यों के भी दुःख हरते हैं
पवन
तिवारी
०९/०६/२०२२
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