प्रेम
के स्वप्न देखे कई रात हम
ब्याह
कर आये तो हिस्से में आये गम
लेके
परिणय को जो इक लहर थी उठी
वह
अकस्मात कम क्या गयी पूरी थम
ज़िंदगी
की मुझे ज़िंदगी
लागे कम
हँसती
ऑंखें सदा अब तो रहती हैं नम
अब
कहा जाये ना अब सहा जाये ना
मन का पानी
लगे है गया जैसे जम
ज़िंदगी
का निकलने लगा
मेरे दम
खुशियों
को बाँध के खींचता जैसे यम
प्रेम
में खोजने थे उजाले
चले
हाय
कैसे
गले पड़ गया
आके तम
प्रेम
के भी निभाये थे
सारे धरम
सब
समझ के भी अच्छे किये थे करम
लोग
कहते हैं प्रारब्ध की बात है
हाय
प्रारब्ध तुझको न
आयी शरम
पवन
तिवारी
२७/०४/२०२२
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