यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

मंगलवार, 10 मार्च 2020

सबसे बड़ा दुःख ?




कई बार ऐसी स्थिति बनती है कि
दुःख को व्यक्त करने में ही
इतना दुःख होता है कि,
गले में अटक जाता है.
और अक्सर,
जीवन भर अटका रहता है.
पता है, जीवन भर ! 
दुःख की खरास रहती है.
जीवन भर ज़ुबान
लड़खड़ाती रहती है,
और आँखें डबडबायी ;
और वो कहता है-
कुछ नहीं हुआ, सब ठीक है !
क्या यह कहना ही सबसे बड़ा दुःख ?

कई बार दुःख को
न व्यक्त करने
में भी सुख होता है.
क्योंकि व्यक्त करने पर
वह दुःख और बढ़ जाता है.
और न व्यक्त करने से
कम दुःख होता है.
ऐसे में वो ‘कम’ दुख ही सुख है.
यदा कदा दुःख का अभिनय करना सुख,
यदा कदा दुःख देता है.
कई बार दुखी दिखना भी
दुःख देता है.
क्या यह सबसे बड़ा दुःख नहीं ?

कई बार दुखी देखना अच्छा लगता है.
और कई बार बुरा भी,
कई बार दुःख प्रकट करना भी
दुःख देता है.
तो क्या सबसे बड़ा दुःख यह है ?

आप ने ओढ़ा हुआ दुःख देखा है ?
यह कई बार जोंक बन जाता है
उसके बाद का दुःख
क्या सबसे बड़ा दुःख नहीं होता ?

एक निराला दुःख होता है
जो दूसरों की खुशियाँ देखने से
उत्पन्न होता है.
कई बार उन खुशियों के
मिटाने के प्रयास में
अपना दुःख और बढ़ जाता है
तब क्या वह ?
सबसे बड़ा दुःख नहीं होता ?    


पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८

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