कैसे - कैसे बुद्धिजीवी हो रहे हैं
प्रश्न के उत्तर
प्रश्न से दे रहे
हैं
नौकरी की सड़क पे घायल सपन
हैं
चाह के कोमल सुमन हो
गये दफन हैं
कर्णधारों से अपेक्षा
क्या करें हम
जन के हिस्से के वे
मोटे से गबन हैं
उनसे खुशहाली की कैसी
माँग करना
जो सतत बस यातनाएं दे रहे हैं
कुछ थे अब सब कुछ
अराजक हो गये हैं
एकता के सूत्र घायल हो
गये हैं
इन विकासों का रहा
औचित्य ही क्या
ये हमारे ही विनाशक हो गए है
एकता की बात अब पागुर लगे
है
जब अकेलापन सभी को
दे रहे हैं
आचरण की मौनता
पर खिन्न हैं
सब दिखाने में लगे
हैं भिन्न हैं
कोई सुनता ही नहीं सब कह रहे हैं
अपने भीतर थोड़े
– थोड़े ढह रहे हैं
संस्कारों की दुहाई देते
- देते
क्या था देना और हम
क्या दे रहे हैं
खुरदुरा मेरा भी
लहज़ा हो गया है
अदब सबसे निचला दरजा
हो गया है
धन के गट्ठर कुर्सियों पर ढेर
हैं
ज्ञान जैसे अनाथ परजा हो गया है
ऐसे में अब गीत का
स्वर उभरे कैसे
काग गीतों पर प्रशिक्षण दे रहे हैं
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
पवनतिवारी@डाटामेल.भारत
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