रिश्तों के कितने चौराहे
मार्ग दिशा भ्रम
होने लगता
कल जो अपना आज गैर
का
हर दिन छल सा होने
लगता
रिश्तों की मौलिकता
मर गयी
नैतिकता आदमी से डर गयी
जो कहते विश्वास पात्र अब
उनसे भी भय होने लगता
आचरण का क्षरण हुआ है
भ्रष्ट भी अब
व्याकरण हुआ है
ऐसे
में क्या बचेगी भाषा
पुस्तक से डर
होने लगता
मत भी अब असहिष्णु
हो गये
अत्याचारी
विष्णु हो गए
अब स्वतंत्र स्वच्छंद हुए हैं
लोकतन्त्र
जड़ होने लगता
भावनाओं पे चढ़ी है
चाबुक
अधर खुले हो कर भी हैं चुप
ऐसा दौर अचम्भा कुछ
नहीं
पुरुष भी स्त्री होने
लगता
पवन तिवारी
सम्वाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक-
पवनतिवारी@डाटामेल.भारत
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