अपने सपनों से लड़ रहा हूँ मैं
थोड़ा - थोड़ा सा मर रहा हूँ मैं
संभालेंगे कि जिनसे आशा थी
उनसे ही अब संभल रहा हूँ मैं
दूसरों की खुशी की
खातिर मैं
अपना होके भी कब रहा
हूँ मैं
झूठ की बस्ती इतनी
ज्यादा है
सच को लेकर भटक रहा
हूँ मैं
जब से मेरा
उरूज आया है
ज्यादा अपनों को खल रहा हूँ
जीभ तो झूठ दांत सच
चाहे
बोलते ही अटक रहा हूँ
मैं
छूटती जाती
जिन्दगी मुझसे
जितना
इसको पकड़ रहा हूँ मैं
गाँव से शहर आया
जमने को
और जड़
से उखड़ रहा हूँ मैं
प्यार का जब से लगा है चस्का
जाने किस किस से डर रहा हूँ मैं
जब से मुझको मिली
मोहब्बत है
दोस्तों को
अखर रहा हूँ
मैं
इश्क जब
से मिला तुम्हारा है
हल्का – हल्का निखर
रहा हूँ मैं
हार जाता हूँ मगर
खुश फिर भी
अपने मन की जो कर
रहा हूँ मैं
जब से सच बोल दिया
महफिल में
अपनों को ही खटक रहा
हूँ मैं
ज़रा दुनिया क्या
समझने निकला
और फिर दर - बदर रहा हूँ मैं
गाँव मासूम सा जी बच्चा है
जमाने तक शहर
रहा हूँ मैं
आज कल रिश्ते सर के
ऊपर हैं
कितनों की ही डगर रहा
हूँ मैं
उन्हें भी इश्क पवन
चखने दो
कुछ दिनों तक ग़ज़ल रहा हूँ मैं
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – पवनतिवारी@डाटामेल.भारत