शहर भी मेरा प्यारा है
गांव ही नहीं दुलारा है
जो भी गांव का मारा है
उसको शहर दुलारा है
रुखा - भूखा गांव से आया
शहर ने ही रोटी दिलवाया
प्रतिभा का अपमान किया
नहीं समुचित स्थान दिया
ना ही अच्छी शिक्षा दी
ना रोजगार की भिक्षा दी
प्रेम किसान जो करते थे
दिल से तुम पर मरते थे
उनको भी है मार दिया
जीवन से ही तार दिया
सपनों को मिट्टी से
दबाया
गांव-गांव कहकर फुसलाया
युवा गाँव का बदल गया
शहर में आकर संभल गया
लोगों को भड़काते हो
कहकर शहर डराते हो
कुछ हैं छद्म तुम्हारे
चेले
उनके भी हैं शहर में
ठेले
शहर को वे गरियाते हैं
गाँव का गुण वे गाते हैं
गाँव बड़ा ही प्यारा है
गाँव शहर से न्यारा है
शहर में रहते खाते हैं
झोला भर के कमाते हैं
गाँव को भी खिलाते हैं
फिर भी हमें गरियाते हैं
बेरोजगार गाँव से आते
ढेरों बीमार वहाँ से आते
उच्च पढ़ाई करने ख़ातिर
अभियंता बनने की खातिर
गांव नहीं दे पाता है
शहर में आ कर पाता है
गांव में देखे थे जो
सपने
शहर ने उन्हें बनाए अपने
खुशियों का भंडार दिया
है
मांगा एक हज़ार दिया है
दोनों एक दूसरे के पूरक
क्यों लड़ते हो बन कर
मूरख
शहर ने भी तो प्यार दिया
अर्थ, मान व दुलार दिया
शहर गांव हैं भाई - भाई
दोनों की है एक ही माई
दोनों का अपना औरा है
दोनों का अपना चौरा है
कोई नहीं लड़ाई है
शहर गांव का भाई है
गांव की अब मजबूरी है
माई कर ली दूरी है
माई को समझाना है
गांव को गांव बनाना है
शिक्षा, रोजगार,
स्वास्थ्य सब
गांव में लेकर आना है.
शहर को ना गरियाना है
उसका भी गुण गाना है
शहर में रहकर गाँव जो
गाते
बैठ – बैठ कर कवित्त
बनाते
अब सपनों में सुंदर गाँव
गाँव में जाकर देखो गाँव
आशाओं का संग छूटेगा
सपनों का भी भ्रम टूटेगा
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmai.com
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