आज सपने में मेरा गाँव आया
मेरे गाँव वाले नाम से
पुकारा कई - कई बार
मैंने नहीं दिया ध्यान
क्योंकि अब मेरा नया नाम है
दौड़कर पास आया
बाँह पकड़ कर झिंझोड़ा
मैंने उसे देखा
एक अजनबी की तरह
वह बोला, ऐसे क्या देख रहे हो
पंकज
सुनकर मैं हड़बड़ा गया
इसे कैसे याद है
मेरा इक्कीस साल पुराना नाम
इसे तो मैं गाँव में ही छोड़ आया था
मैं सोच ही रहा था कि वह बोला
तुमने सही सोचा
तुम जिस नाम को छोड़ आए थे
इक्कीस साल पहले गाँव
मैं वही गाँव हूँ
जहाँ तुम पैदा हुए
पहली बार पाठशाला गए
पहली बार अमरुद तोड़े
पहली बार सरयू में नहाए
पहली बार मेला गए
पहली बार रामलीला भी वहीं देखी थी
बाबू जी से छुप के पहली बार
जब साइकिल चलाये थे
और गिरने से फूट गया था घुटना
अच्छा दुर्गा मंदिर पर पहली बार
जब तुम पढ़े थे
अपने चाचा के साथ सुंदरकाण्ड
वही तुलसी बाबा के मानस का
कुछ याद आया
अच्छा गोबिंद साहब का मेला
वो तो जरुर याद होगा
वहीं पर चिड़िया घर में
तुम पहली बार देखकर
आये थे शेर
और अगले दिन सभी को
पूरे गाँव में घूम – घूम कर
खुशी – खुशी बताये थे
मुझे सब याद है
मैं तुम्हारा वही गाँव हूँ
जहाँ तुम्हारी दीदी तुम्हारी आंखों में
पाठशाला जाते समय लगाती थी काजल
और उनकी ही पुस्तक में तुमने पढ़ी थी
प्रेमचंद की पहली कहानी ईदगाह
सब भूल गए
तुम्हारी पहली कविता
चुपके से जब अंतरदेसी में
लिख कर डाली थी डाक बक्से में
भूल गए मुझे
वहीं तुमने श्वेत-श्याम टेलीविजन पर
देखी थी महाभारत
पहली बार सिनेमा भी देखे थे
वहीं अमिताभ हेमा मालिनी और
राजकुमार को पहचाने थे
याद आया 1996 का विश्व कप
जब तुमने विद्यालय में पहली बार
क्रिकेट कमेंट्री का शोर सुना था
और फिर तुम्हें प्यार हो गया
कुछ दिन पहले तक
दुश्मन रहने वाले क्रिकेट से
सब भूल गए शहर आकर
यह तो याद होगा
पहली बार कहानी और गीत
वहीं गाँव में महुए के पेड़ के नीचे
बाग़ में लिखे थे
लेखक बनने का बीज
जिस गाँव में पड़ा
वो गाँव मैं ही हूँ
अभी भी नहीं पहचान पा रहे हो
मैंने हड़बड़ाकर तुरंत कह दिया
हाँ, हाँ मेरे गाँव, पहचान गया
तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ
तुम मेरे अलउदीपुर हो
इतना सुनते ही लिपट गया गाँव
और फफक – फफक कर रो पड़ा
जाने क्यों मैं भी रोने लगा
वह रोते हुए बोला
अच्छा हुआ तुमने तो पहचान लिया
मुझे लोग जबरदस्ती शहर लाए हैं
शहर बनाने
मैं गाँव ही रहना चाहता हूँ
मैं कई दिन से बहुत परेशान था
कि तभी तुम्हारी पहली कहानी
चवन्नी का मेला जो तुमने लिखी थी
महुए के पेड़ के नीचे
गर्मियों की छुट्टियों में
ट्रेन में एक आदमी को पढ़ते देखा
आखिर में लिखा था तुम्हारा पता
बड़ी मुश्किल तुम्हें खोजते खोजते आया हूँ
मुझे बचा लो पंकज
कहो तो तुम्हें
तुम्हारे नए नाम से
बुलाऊँ
पर तुम मुझे बचा लो
तुम भी गाँव चलो ना
अब तुम्हारे जैसा
कोई नहीं है गाँव में
और वह जोर - जोर से रोने लगा
मैंने भी रोते हुए कहा
मत रोओ, हम साथ चलेंगे गाँव
तुम सही जगह आ गए हो
तुम्हें कोई नहीं बनाएगा जबरदस्ती शहर
इतने में पत्नी की आवाज
कानों में जोर से गूँजी
क्या हो गया
इतनी जोर से क्यों रो रहे हो
कोई भयानक सपना देखे क्या
मेरी नींद टूट गयी
पलकों के नीचे हाथ लगाया
आँसुओं से गले तक भीग गया था
रुँधे गले से आवाज निकली
मेरा गाँव..... बस
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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