यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

देने को उपदेश बहुत हैं


देने  को  उपदेश बहुत हैं

देश में भी परदेस बहुत हैं

संकट में कोई काम ना आए

वैसे मित्र  विशेष बहुत हैं



जग  में  रिश्तेदार बहुत हैं

मौके  पर  बेकार  बहुत हैं

बनते काम बिगड़ जाने पर

खेद  जताते  यार बहुत हैं



जीवन  में जंजाल  बहुत हैं

अंजाने  से कमाल  बहुत हैं

एक क्षण रोना एक क्षण गाना

तिकड़म के भी जाल बहुत हैं



एक ही जीवन लक्ष्य  बहुत हैं

ध्यान से देखो तथ्य  बहुत हैं

है अद्भुत  अमूल्य  ये जीवन

खोजोगे  तो  सत्य  बहुत हैं



अपने भी तो ख्वाब बहुत हैं

अपनों  के भी दाब बहुत हैं

हमी  नहीं  सपनों के राजा

एक  से एक नवाब बहुत हैं



पवन तिवारी

संवाद – ७७१८०८०९७८

अणु डाक – poetpawan50@gmail.com

रविवार, 25 नवंबर 2018

क्योंकि मैं लिखता हूँ.....






मर गया होता शायद
न लिखता तो 
गमों के साथ में 
गल गया होता 
घेरे रहती उदासियां 
अक्सर
इन उदासियों के तले 
दबकर मर गया होता 
न लिखता तो 
क्यों जानते हो 
मैं जिंदा क्यों हूँ
मैं लिखता क्यों हूँ
क्यों जानते हो 
मेरे लिए बचा ही नहीं 
कोई रास्ता 
मैं लिखता हूँ 
जिंदा रहने के लिए 
मैं जिंदा हूँ
इसलिए भी लिखता हूँ
तुम मेरी अभिव्यक्ति पर 
ठहाके लगाकर 
हँस सकते हो 
अट्टहास के साथ 
उड़ा सकते हो 
मेरा उपहास 
पर इससे भी नहीं बदल सकता 
मेरा देखा, भोगा और 
क्षण, क्षण जिया हुआ सत्य 
जब कभी तुम 
सभी अपेक्षाओं द्वारा 
जाओगे छले
सभी संबंधों
विश्वासों द्वारा जाओगे ठगे 
शायद तब तुम्हें 
मेरी ये अभिव्यक्ति कचोटे
और तुम कर लो आत्महत्या 
एक कायर की भाँति
क्योंकि तुम लिख नहीं सकते
हाँ, यह तुम लिखना सीख जाओ तो 
बच सकते हो 
कायरों की तरह मरने से 
क्योंकि लेखन आप को कायर नहीं 
संघर्ष करना सिखाता है 
अपने को शब्दों में 
व्यक्त करने का 
एक नया ब्रश, एक नयी छीनी
एक नई कला देता है 
मेरी जिंदगी और मौत के बीच 
अगर कोई खड़ा है तो 
मात्र मेरा लेखन ही है 
ना होता तो,
कोई उद्देश्य या बहाना ही 
न बचता जीने का 
बिना उद्देश्य के जीना 
मरना ही तो है या 
उससे भी बदतर 
जैसे खाली मकान धीरे-धीरे 
खंडहर हो जाता है 
खंडहर होना मरना ही तो है 
मैं खंडहर नहीं होना चाहता 
मैं जिंदा हूँ और रहूँगा
क्योंकि मैं लिखता हूँ

पवन तिवारी
सम्वाद- 7718080978
poetpawan50@gmail.com


गुरुवार, 22 नवंबर 2018

समय ने ऐसा घसीटा


समय  ने ऐसा  घसीटा  अस्थियाँ  तक छिल गयी
बोलती  बहुबचन  जिह्वा  वो भी  देखो सिल गयी
ये न पूछो  पलकों ने  कितने कहाँ  शबनम गिराये
नजदीकियों  में  ही बहुत  सी  दूरियाँ हैं मिल गयी

जो भी थे सम्बन्ध  उर के मस्तिष्क  से जुड़  गये
जिनको समझा  अपना था वो पंछी बन के उड़ गये
समय के इस खेल ने प्रतिक्षण मुझे विस्मृत  किया
रक्त  के  सम्बन्ध  थे  जो  देख  करके मुड़ गये

स्वप्न  प्यारे  जो  लगे  थे  उनसे  अब  डरने  लगे
प्रेम  में  जीते  थे  हम  अब  प्रेम में  मरने लगे
रात्रि  में  भी  स्वप्न  के भय से हैं हम सोते नहीं
सुन्दरी  के  रूप  अब  डायन  से  हैं  लगने लगे

जो  इशारे  समझते  थे  अब  कहा  समझे  नहीं
जो  अकेले  शाम  में  भी  मेरे  बिन निकले नहीं
उनके  तेवर  इस  क़दर कुछ चढ़ गये हैं क्या कहें
अब जमाना हमसे है, तुम क्या हो, कुछ तुमसे नहीं



पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com

जब तक स्वार्थ रहा मुझसे


















































जब  तक स्वार्थ  रहा मुझसे
तब तक वे  कितने अच्छे थे
बात-बात पर हाँ जी – हाँ जी
जाने   कितने   सच्चे   थे

घड़ी - घड़ी पर हाल – चाल
ख़याल  रखना  कहते   थे 
ऊँचा स्वर भी बोल दिया तो
हँस – हँस  करके  सहते थे

हम नहीं उनके वो न हमारे
निकला काम बदल गये वो
हाल-चाल को कौन कहे अब
मुड़कर   नहीं   देखते  वो

सारे  वादे   भूल  गये  थे
हम  क्या  हैं  वो भूल गये
नैतिकता  की  हत्या  करके
धूर्त  रूप  में  वो  आ गये

करुणा का हट गया मुखौटा
लगा  देख  जैसे  मुँहझौंसा
कविताई  के  रंग  उड़ गये
झूठे   अनुबंधों  सा  लौटा

अच्छा नाम रखा भल तूनें
अच्छे  नहीं  रहे गुण तेरे
तू भी निकला सबके जैसा
मर  गये रिश्ते तेरे - मेरे

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक -  poetpawan50@gmail.com




मंगलवार, 20 नवंबर 2018

सम्मान का घरौंदा


सम्मान का घरौंदा हर बार उजाड़ा
पैसे  ने ही मेरा घर - बार उजाड़ा
प्रेम को भी रूह से खँरोच ले गया
पैसे  ने  ही  मेरा  संसार उजाड़ा

ज़िंदा  था  मगर  पैसे ने  मार डाला
अच्छा था मगर मुझको बुरे में सँवार डाला
सपने गज़ब के थे बनना मुझे था क्या
पैसे ने मगर मेरे सपनों को मार डाला

यूँ दूर ढकेला मुझे रिश्तों के बाग़ से
रिश्तों के बाग़ में  दिखते हैं दाग से
पैसा  भी  परेशां  होकर पिघल गया
पाला पड़ा है उसका जैसे कि आग से

रिश्तों को खा गया वो कच्चे बेर से
आया मेरे कदमों में लेकिन वो देर से
जब मुझको उतनी जरूरत नहीं रही
तब बरस रहा है अशरफ़ी के ढेर से

पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

लोग दिलों में धड़के हैं










लोग दिलों में धड़के हैं
हमें आंखों में खटके हैं
हाँ हुजूर वालों के लिए तो
400 वोल्ट के झटके हैं

सच का नहीं जमाना है
हमने भी यह माना  है
पर सच तो केवल सच ही है
हमने सत्य को जाना है

सत्य  ही मात्र  सनातन है
सत्य बिना व्याकुल मन है
झूठ के रिश्ते कितने दिन तक
सत्य है  तो  अपनापन है

सत्य की राह में बाधा है
पर  वह  सीधा साधा है
झूठ के  पांव बहुत से हैं
पर  सब  टूटा आधा है


पवन तिवारी
संवाद- ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com