समय ने ऐसा घसीटा अस्थियाँ तक छिल गयी
बोलती बहुबचन जिह्वा वो भी देखो सिल गयी
ये न पूछो पलकों ने कितने कहाँ शबनम गिराये
नजदीकियों में ही बहुत सी दूरियाँ हैं मिल गयी
जो भी थे सम्बन्ध उर
के मस्तिष्क से जुड़ गये
जिनको समझा अपना था
वो पंछी बन के उड़ गये
समय के इस खेल ने
प्रतिक्षण मुझे विस्मृत किया
रक्त के सम्बन्ध थे जो देख करके
मुड़ गये
स्वप्न प्यारे जो लगे थे उनसे अब डरने लगे
प्रेम में जीते
थे हम अब प्रेम में मरने लगे
रात्रि में भी स्वप्न के
भय से हैं हम सोते नहीं
सुन्दरी के रूप अब डायन
से हैं लगने
लगे
जो इशारे समझते
थे अब कहा समझे नहीं
जो अकेले शाम में
भी मेरे बिन निकले नहीं
उनके तेवर इस
क़दर कुछ चढ़ गये हैं क्या कहें
अब जमाना हमसे है, तुम
क्या हो, कुछ तुमसे नहीं
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
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