सम्मान का घरौंदा हर
बार उजाड़ा
पैसे ने ही मेरा घर - बार उजाड़ा
प्रेम को भी रूह से
खँरोच ले गया
पैसे ने ही मेरा संसार उजाड़ा
ज़िंदा था मगर पैसे ने मार डाला
अच्छा था मगर मुझको बुरे में सँवार डाला
सपने गज़ब के थे बनना
मुझे था क्या
पैसे ने मगर मेरे
सपनों को मार डाला
यूँ दूर ढकेला मुझे
रिश्तों के बाग़ से
रिश्तों के बाग़ में दिखते हैं दाग से
पैसा भी परेशां होकर
पिघल गया
पाला पड़ा है उसका
जैसे कि आग से
रिश्तों को खा गया
वो कच्चे बेर से
आया मेरे कदमों में
लेकिन वो देर से
जब मुझको उतनी
जरूरत नहीं रही
तब बरस रहा है अशरफ़ी
के ढेर से
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
अणु डाक – poetpawan50@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें