यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास पर एक दृष्टि

हमारे देश में पत्रकारिता का प्रारंभ 18वीं सदी के
आखिरी दो दशकों में हुआ, परंतु यदि धार्मिक व
पौराणिक कथाओं अथवा युग की बात माने तो शायद
देवर्षि नारद जी भारतीय संस्कृति के प्रथम पत्रकार थे.
वे एक जगह से खबर लेकर कई जगहों पर पहुंचाते
थे. वह यह कार्य सम्पूर्णतया जनहित की भावनाओं
से करते थे. पहले राजाओं द्वारा गुप्त सूचनाओं व
अन्य जरूरी जानकारियों के लिए गुप्तचर रखे जाते
थे, कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र तथा 'मनुस्मृति में
पत्रकारिता का उल्लेख मिलता है. कौटिल्य
(चाणक्य) के समकालीन चीनी पर्यटक मेगास्थनीज
के सफरनामों में इस बात का प्रमाण मिलता है कि
चंद्रगुप्त के प्रधानमंत्री चाणक्य (कौटिल्य) ने कई श्रोतों से समाचार एकत्रित
कराने की व्यवस्था करवा रखी थी. पुराने जमाने में खबरें घुड़सवारों, प्रशिक्षित
कबूतरों व धावकों द्वारा राजाओं के दरबारों व अन्य महत्वपूर्ण लोगों तक
पहुंचाई जाती थी.
हमारे देश में पहला छापाखाना सन 1674 में मुंबई में शुरू हुआ (स्थापित
हुआ). इसके बाद चेन्नई (1772) और कलकत्ता (1779) में छपाई प्रेस
लगाए गए. प्रेस लग जाने के बाद भारत में पत्रकारिता पहले की अपेक्षा लंबे
तथा क्षिप्रतर कदम भरने लगी. इससे पहले इंग्लैंड से कुछ गिनती के भारतीयों
के पास अखबार आते थे.
भारतीय पत्रकारिता की जननी कलकत्ता है. हिंदुस्तान में सर्वप्रथम अखबार
प्रकाशन की योजना विलियम बोल्टस ने 1767 इ. में बनाई थी. परंतु यह खबर
जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी को चली वैसे ही कंपनी पहले जाने वाले जलयान से
यूरोप भेज दिया. पहला अखबार 'बंगाल गजट' 29 जनवरी 1780 के दिन
कलकत्ता से ही छपा था. इस अखबार के संस्थापक आगस्टस हिकी थे.
इसलिए इस अखबार को 'हिकीज गजट' भी कहते थे. यह साप्ताहिक था. इस
अखबार में कंपनी सरकार की आलोचना के कारण सरकार ने इस पर प्रतिबंध
लगा दिया. 1782 में इसी 'हिकी' को सजा हो गई. इसके बाद कई अखबार
प्रकाशित हुए.
'रिलेटर' के बाद 1816 तक कोई नया पत्र नहीं प्रकाशित हुआ, €क्योंकि कंपनी
सरकार की नीतियां पत्र-पत्रिकाओं के बेहद खिलाफ थी. 1818 ई. के बाद
प्रेस पर लगे प्रतिबंधों पर ढील दे दी गई क्योंकि तब तक अंग्रेजी हुकूमत की
स्थिति काफी मजबूत हो चुकी थी. 1823 में 'बंबई गजट' और 'बंबई
कोरियर' के संपादक सी. जे. फेअर पर अदालत की कार्यवाही छापने में
गलतबयानबाजी का इल्जाम लगाकर उसे हिंदुस्तान से उसकी इच्छा के विरुद्ध
इंग्लैंड वापस भेज दिया गया. इन दोनों पत्रिकाओं के मालिक गवर्नर जनरल की
कौंसिल के सदस्य फ्रांसिस वार्डन थे. परिणाम स्वरूप अंग्रेजी सरकार ने अपने
सभी कर्मचारियों को सभी पत्र-पत्रिकाओं से संबंध तोड़ लेने का आदेश दिया.
इस आदेश में एक छूट थी कि कर्मचारी सिर्फ साहित्यिक व वैज्ञानिक पत्रप
पत्रिकाओं से संबंध रख सकते हैं तथा अपने लेख भी छपवा सकते हैं. देश
आजादी के बाद भी वही नियम आज के सरकारी कर्मचारियों पर लागू है. इस
बीच कई अखबार निकले 1818 में 'दिग्दर्शन' व 'समाचार दर्पण' (बंगला
व अंग्रेजी में) अन्य बंगला अखबारों में 'समाचार पत्रिका, 'सुगंध कौमुदी,
'संवाद तिमिर नाशक' तथा 'बंगदूत. यह बंगला, फारसी व नागरी तीनों में
निकलता था. भारतीय भाषाओं में पहला अखबार छापने का श्रेय बांग्ला लिपियों
को है. भारतीय पत्रकारिता का श्रीगणेश बंगाल की भूमि से हुआ. 1839 तक
कलकत्ता से 6 दैनिकों सहित 26 यूरोपीय तथा 9 भारतीय अखबार प्रकाशित हो रहे थे , मुंबई से
10 यूरोपीय और 4 भारतीय तथा मद्रास से 9 यूरोपीय प्रकाशित हो रहे थे.
इसके अलावा श्री रामपुर, आगरा, लुधियाना और दिल्ली से एक-एक अखबार
प्रकाशित हो रहे थे.
1823 में अंग्रेजी सरकार ने अखबारों के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य बना
दिया . उस समय इसका बड़ा विरोध हुआ. परंतु हार ही नसीब हुई. 1826
ई. से लाइसेंस लेकर अखबार शुरू हुए.  30 मई 1826 में ही हिन्दी का प्रथम समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' जुगल किशोर शुक्ल के सम्पादन  में शुरू हुआ  और 19 दिसम्बर 1927 को अर्थाभाव के कारण बंद हो गया उच्चकोटि का राष्ट्रवादी अखबार था. 1835 में नए गवर्नर बने मेटकाल्फ
ने लाइसेंस प्रथा समाप्त कर दी. जिस कारण उसे अपना गवर्नर पद गंवाना पड़ा.
1821 में राजा राममोहन राय ने 'संवाद कौमुदी' तथा 1822 में फारसी में
'मिरूत-उल-अकबर' (साप्ताहिक) की स्थापना की. 1823 में मिरुत-उल-
अकबर को उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रेस कानून के विरोध में बंद कर दिया गया.
कंपनी सरकार को राजा राममोहन राय की पत्रकारिता संबंधी गतिविधियां पसंद
नहीं थी. फिर भी राजा पृष्ठभूमि में रहकर अन्य पत्र-पत्रिकाओं की मदद करते
रहे. 1860 के दशक के अंत में 11 उर्दू और 6 हिंदी अखबार प्रकाशित होते
थे. कई उर्दू अखबारों के संपादक हिंदू थे. सन 1875 को प्रथम संध्याकालीन
पत्र 'मद्रास मेल' प्रकाशित हुआ.
 7 अगस्त 1880 को पं. दुर्गाप्रसाद के सम्पादन में 'उचित वक्ता' अखबार निकाला. इसके
प्रथम संपादकीय का संदेश था कि ''स्वाधीनता गंवाकर विकास करने में कोई
गौरव नहीं''. 1890 में अमृत चक्रवर्ती द्वारा संपादित हिंदी बंगवासी 19वीं
शताब्दी का आखिरी अखबार था. अब तक के छपे अखबारों में सबसे ज्यादा
ग्राहक संख्या इसी अखबार की थी. यह संख्या 2 हजार थी. इस अखबार के
निकलते ही कई अखबार बंद हो गए. पं. अंबिका प्रसाद के अनुसार यह हिंदी
अखबार पत्रकारों का प्रथम विद्यालय था. इसने कई अन्य अखबारों को अच्छे
पत्रकार दिए. उन दिनों जहां कुछ समाचार पत्र अंग्रेजी हुकूमत के तरफदार थे,
वहीं कई समाचार पत्र राष्ट्र हितैषी व फिरंगियों के कट्टर आलोचक थे. जिससे
निपटने के लिए लार्ड लिट्टन ने 1878 में 'देशी भाषा समाचार पत्र' कानून
बनाया.
इस कानून के द्वारा देशी राष्ट्र हित में आवाज उठाने वाले अखबारों की सामग्री
जब्त कर ली जाती थी. उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट दिए जाते थे. कलकत्ता से
प्रकाशित 'भरत मित्र' के संपादक बाबू बाल मुकुंद ने लार्ड कर्जन की करतूतों
को नंगा कर बंग-विच्छेद का जबरदस्त विरोध किया.
बीसवीं सदी के पहले दशक में कुछ महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाएं भी
निकलना शुरू हुई, जिनका जिक्र करना बहुत जरूरी है. वे हैं भारतेंंदु हरिश्चंद्र
के संपादन में 'हरिश्चंद्र मैगजीन' (वाराणसी), पं. महावीर प्रसाद द्वीवेदी के
संपादन में 'सरस्वती' (प्रयाग) तथा आचार्य शिवपूजन सहाय एवं नलिन
विलोचन शर्मा के संपादन में 'साहित्य'. इन पत्रिकाओं में सरस्वती का विशेष
स्थान है. इस पत्रिका ने हिंदी साहित्य को एक नया मुकाम दिया. 1907 में
'नृसिंह पत्रिका' (मासिक, संपादक - अंबिका प्रसाद वाजपेयी) के चौथे अंक
में वाजपेई ने लिखा - स्वराज्य की आवश्यकता भारतवासियों को इसलिए है
कि विदेशी सरकार उनके अभावों व अभिलाषाओं को समझने में असमर्थ है.
यदि आज यहां स्वराज्य होता तो लाखों हिंदुस्तानी दुर्भिक्ष के कारण दाने-दाने
को तरस कर प्राण न गंवाते. स्वराज्य के अभाव से ही प्रतिवर्ष 45 करोड़ रु.
इस दरिद्र देश से इंग्लैंड चले जाते हैं.
1942 में 'मतवाला' का प्रकाशन शुरू हुआ. मतवाला पत्रकारिता के साथ
साहित्य में भी एक ऐतिहासिक घटना थी. इसमें हिंदी के जाने-माने लेखकों के
लेख छपते थे. 'मौजी' तथा 'आदर्श' भी इस समय के प्रसिद्ध पत्र थे. इन दोनों
के संपादक शिवपूजन सहाय थे. यह राष्ट्र हितैषी थी. 'विशाल भारत' गांधीयुग
की प्रसिद्ध पत्रिका (मासिक) थी. 1928 में यह कलकत्ता से शुरू हुई. इसके
संपादक बनारसी लाल चतुर्वेदी थे. सन 1942 में रवींद्रनाथ ठाकुर ने शांति
निकेतन से 'विश्व भारती' का प्रकाशन प्रारंभ किया. इसके संपादक पं. हजारी
प्रसाद द्विवेदी थे. यह बहुत उच्च कोटि की सांस्कृतिक व साहित्यिक पत्रिका थी.
इसमें देश की मनीषी, कलाकार व साहित्यकार अपने लेख भेजते थे.
देश की आजादी 1947 के बाद कलकत्ता की भूमिका पत्रकारिता (हिन्दी) में
कम होने लगी और इसका क्षेत्र दिल्ली व उत्तर भारत बन गया. दिल्ली से
'हिंदुस्तान टाइम्स, 'नवभारत टाइम्स, राजस्थान से 'राजस्थान पत्रिका' और
'नवज्योति, मध्य प्रदेश से ' नईदुनिया, ' दैनिक भास्कर; और 'नवभारत' प्रकाशित हो
रहे थे. 1962 के करीब तक पत्रकारों में तीव्र आदर्शवादिता थी. 'मिलाप'
दैनिक के तत्कालीन संपादक खुशहाल चंद्र जो कि संन्यास लेने के बाद आनंद
स्वामी कहलाए, वह सब कुछ छोड़ देने (त्याग देने) के बावजूद 'मिलाप' को
नियमित रूप से अपना संपादकीय भेजते थे. कारण उनके हृदय में समाज के
प्रति कर्तव्य परायणता, समाजहित की भावना थी, जैसे देश स्वतंत्रता प्राप्ति के
पूर्व था.
1965 के बाद भारतीय पत्रकारिता का ह्रास होने लगा .(चीनी आक्रमण तथा
नेहरु के अवसान के बाद) और आज अपने चर्मोत्कर्ष पर पहुंच गया है. आज
किराये का संपादक किराये का कर्मचारी बनकर रह गया है. आज सिर्फ स्वार्थ
सिद्धि मुख्य उद्देश्य रह गया है. अब कलम पूंजीपतियों की दासी है. पूंजी पति
कलम का दाम चुकता करते हैं. आदर्श पत्रकारिता बीते जमाने की बात हो गई
है. पहले 'घर फूंक तमाशा देखने वाले पत्रकार थे. साहस था. अब वह भाव
लुप्त हो गया है . इस सशक्त माध्यम का उपयोग अपने निजी स्वार्थों के लिए कर
रहे हैं. मर्यादा, आदर्श कूड़ेदान में कभी का फेंक चुके हैं. जैसे अविवाहित स्त्री
अपने बच्चे (नवजात शिशु) को चुपके से कूड़ेदान में फेंक देती है. इसी कारण
पहले की तरह पत्रकारों का अब आदर भी न रहा.




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