यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

रविवार, 21 अगस्त 2016

आइये सुर्यवर्चा,बर्बरीक और खाटूश्याम से एक साथ मिलें

बर्बरीक कथा
 
 मित्रों बर्बरीक मेरे प्रिय पौराणिक पात्र हैं.  आज मैं कविता कहानी से इतर भीम के पौत्र बर्बरीक की कहानी आप के साथ अपने अंदाज में कहूँगा ..... तो आइये मेरे साथ सुर्यवर्चा अर्थात बर्बरीक उर्फ़ सुहृदय अर्थात खाटूश्याम की अद्भुत कहानी सुनिए.... मित्रों पांडु पुत्र महाबली भीम एक बार जंगल में अपनी माता सहित सो रहे भाइयों की सुरक्षा हेतु पहरा दे रहे थे. उसी जंगल में हिडिम्ब नामक राक्षस रहता था. जो काफी दूर से ही मनुष्यों की गंध पहचान लेता था. उसे पता चल गया कि इसी जंगल में आसपास मनुष्य हैं. उसने अपनी बहन जिसका नाम हिडिम्बा था, उसे उन मनुष्यों को खोजकर उन्हें मारकर  भोजन के रूप में लाने कहा.... हिडिम्बा की खोज पहरा दे रहे भीम के पास पहुँच कर ख़त्म हो गयी. भीम की खूबसूरती देखकर हिडिम्बा मोहित हो गयी और भीम को मारने का खयाल त्याग दी. भीम ने हिडिम्बा को आने का कारण पूछा तो उसने सच-सच बता दिया. इस बीच जब काफी देर बाद भी हिडिम्बा वापस हिडिम्ब के पास भी नहीं पहुँची तो वह स्वयं   खोजते हुए भीम के पास आ पहुँचा .यहाँ जब देखा कि उसकी बहन भीम से प्रेम की बातें कर रही है तो वह गुस्से में अपनी ही बहन को मारने दौड़ा. इस पर भीम ने हिडिम्ब को ललकारा.... औरत पर क्या हमला करता है दम है तो मुझसे लड़. फिर क्या था. भीम ने हिडिम्ब को यमलोक पहुँचा दिया. इस बीच भीम की माँ और सारे भाई जाग गये. सारा मामला पता चलने पर कुंती की आज्ञा से हिडिम्बा और भीम का विवाह हो गया.एक साल उस जगह भीम हिडिम्बा के साथ रहे और फिर  हिडिम्बा को छोड़कर भाइयो साथ चले गये. कुछ दिनों बाद हिडिम्बा को पता चला वह गर्भ से हैं समय आने पर हाथी के मस्तक जैसा सिर वाला पुत्र पैदा हुआ. उसके सिर पर बाल भी नहीं थे और वह पैदा होते ही बड़ा हो गया. इसलिए हिडिम्बा ने उसका नाम घटोत्कच रखा अर्थात घट का अर्थ हाथी के जैसा मस्तक वाला और उत्कच का अर्थ गंजा सिर या बिना बालों वाला सिर.
  पैदा होते ही घटोत्कच ने अपने बारे में पूछा.... हिडिम्बा ने बताया कि वह पांडु पुत्र महाबली भीम का पुत्र है. हिडिम्बा ने उसे पांडवो का आशीर्वाद लेने भेजा.जिस समय वह इन्द्रप्रस्थ पांडवों का आशीर्वाद लेने पहुँचा. उस समय वहां  भगवान श्रीकृष्ण भी मौजूद थे. घटोत्कच ने सबको प्रणाम किया और अपना परिचय दिया. सब बेहद प्रसन्न हुए. इसी बीच बातों -बातों में युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण


से घटोत्कच के लिए एक सुंदर वधू की चर्चा की. भगवान कृष्ण ने कहा कि प्रागज्योतिषपुर
 में एक सुंदर, अद्भुत पराक्रम वाला मुर दैत्य रहता था वह मेरे हाथों मारा गया.
मित्रों प्रागज्योतिषपुर आज के असम का गोहाटी शहर है. उस के मारे जाने पर उस की पुत्री कामकंटिका जिसे मोरवी या अहिलावती भी कहते हैं. मुझसे युद्ध करने के लिए आई. मेरा उससे भयानक युद्ध हुआ पर मैं उसे हरा न सका. मेरा सारंग धनुष भी उसके सामने नहीं टिका .तब मैंने उस का वध करने के लिए अपना आख़िरी अस्त्र सुदर्शन चक्र उठाया. यह देख कामाख्या देवी मेरे सामने आकर खड़ी हो गई. और बोली.... पुरुषोत्तम आप को इसका वध नहीं करना चाहिए. मैंने इसे वरदान स्वरूप खड्ग एवम् खेटक प्रदान किए हैं । जो अजेय हैं। कामाख्या देवी के ऐसा कहने पर मैंने युद्ध से अपने आप को अलग कर लिया और मोरवी ने भी युद्ध बंद कर दिया. मित्रों कामाख्या देवी ने मोरवी से कहा कि युद्ध में भगवान कृष्ण को कोई भी नहीं मार सकता. संसार में कोई वीर न तो हुआ है और न होगा जो. इसे युद्ध में श्रीकृष्ण से जीत सके. साक्षात भगवान शंकर भी इन्हें परास्त नहीं कर सकते.
मोरवी से कामाख्या माता ने कहा - यह तुम्हारे भाभी ससुर  भी हैं इसलिए तुम युद्ध से हट जाओ।  भविष्य तुम इनके भाई भीमसेन के पुत्र घटोत्कच की पत्नी होगी.  इसलिए अपने ससुर समान भगवान कृष्ण का आदर करो और तुम्हें अपने पिता के वध का शोक नहीं करना चाहिए. क्योंकि इनके हाथ से मृत्यु होने पर तुम्हारे पिता सभी पापों से मुक्त होकर वैष्णो धाम को चले गए. कामाख्या देवी के ऐसा कहने पर मोरवी ने क्रोध त्याग कर भगवान कृष्ण को प्रणाम किया. तब भगवान कृष्ण ने कहा बेटी तुम भगवती से सम्मानित होकर इसी नगर में निवास करो. यहां रहती हुई तुम हिडिम्ब कुमार को अपने पति के रुप में प्राप्त करोगी।
  मित्रों इस तरह सारी कथा भगवान कृष्ण युधिष्ठिर को बताकर द्वारिका चले आये. कुछ दिनों बाद युधिष्ठिर पांडवो और घटोत्कच सहित द्वारिका गये तो फिर घटोत्कच के विवाह की बात चली . भगवान कृष्ण ने कहा – घटोत्कच के लिए मोरवी योग्य वर है वह बेहद सुन्दर है.उसके सौंदर्य का वर्णन करना मेरे लिए ठीक नहीं होगा. क्योंकि मैं उसका ससुर लगता हूं. हाँ एक बात और उसने भी प्रतिज्ञा की है कि अगर उसे कोई निरुत्तर कर के जीत ले तो ही वह उससे विवाह करेगी अन्यथा उसको मौत के घाट उतार देगी. उसके पास बहुत से दैत्य और राक्षस विवाह के चक्कर में गये भी किंतु मोरवी ने सब को युद्ध में हरा दिया और बेचारे जीवित नहीं बचे।
मित्रों भगवान कृष्ण की यह बात सुन  युधिष्ठिर बोले - हे प्रभु, मेरा बेटा तो शुद्ध ठीक से बोलना भी नहीं जानता. हमारे कुल का सबसे बड़ा बेटा है. दुनिया में और भी स्त्रियां हैं कोई दूसरी स्त्री बताइए. इस पर भीम बोले- जब कृष्ण जी ने बताया है तो जरूर हमारे बेटे में कुछ बेहतर होगा. घटोत्कच जरूर मोरवी से ब्याह करेगा. इस पर अर्जुन ने कहा जब कामाख्या देवी ने मोरवी से कहा है कि भीमसेन का पुत्र ही तुमसे विवाह करेगा, तो मेरी राय है कि घटोत्कच को वहां जाना चाहिए. इस पर कृष्ण भगवान बोले मुझे तुम्हारी और भीम की बात पसंद है. हिडिम्ब कुमार बोलो- तुम्हारी क्या राय है ? घटोत्कच ने पूजनीय पिता और भगवान श्रीकृष्ण से हाथ जोड़कर कहा कि- मैं ऐसा प्रयास करूंगा कि आपका सम्मान समाज में बना रहे और आप को लज्जित न होना पड़े. मेरे पिता का निर्मल यश बना रहे. इतना कहकर घटोत्कच ने सब को प्रणाम किया और फिर अपने पितरों को प्रणाम किया। घटोत्कच ने जब वहां से प्रस्थान किया तो भगवान कृष्ण ने कहा बेटा तुम्हारी अभेद्य बुद्धि को मैं अभिलंब बढ़ा दूंगा. बस युद्ध के समय तुम जरूर याद करना. ऐसा कहके भगवान कृष्ण ने उसे गले लगा लिया और आशीर्वाद दिया. उसके बाद घटोत्कच सूर्य, बालासोर और महोदर इन तीन सेवकों के साथ आकाश मार्ग से चला और दिन बीतते- बीतते प्रागज्योतिषपुर में जा पहुंचा. वहां जाने पर घटोत्कच ने एक अच्छा सा सुंदर सा महलनुमा घर देखा. मेरु पर्वत के शिखर पर सुशोभित होने वाला महल देख करके  घटोत्कच बेहद खुश हुआ. दरवाजे पर एक सुंदर स्त्री खड़ी थी. जिसका नाम कर्णप्रावरणा था। घटोत्कक्ष ने उस सुंदर स्त्री से पूछा मूर की बेटी कहां है ? मैं बहुत दूर से आया हूं और उसकी इच्छा पूरी करने वाला अतिथि हूं और उसे देखना चाहता हूं. उसकी बात सुनकर वह स्त्री दौड़ते हुए महल में गई और मोरवी को बोली – मोरवी जी कोई सुंदर, खूबसूरत अतिथि द्वार पर खड़ा है. काफी सुंदर है. मुझे लगता है कि वैसा तीनों लोगों में कोई नहीं होगा. उसके लिए मेरा क्या कर्तव्य है आज्ञा दीजिए. कामकंटिका बोली- जल्दी जाओ... देर क्यों करती हो ? क्या पता देव ने उसे मेरी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए भेजा हो ? मोरवी के ऐसा कहने पर वह घटोत्कच के पास जाकर बोली - अतिथि तुम अंदर आओ... और घटोत्कक्ष अंदर आया .अपना धनुष उसने दरवाजे पर ही छोड़ दिया.  मोरवी को देख कर घटोत्कच ने मन ही मन सोचा मेरे पिता समान कृष्ण ने मेरे लिए सही लड़की ढूंढी है... उसका शरीर विद्युत की तरह चमक रहा था. मोरवी को देख कर घटोत्कच ने चिढाते हुए कहा- हे बज्र के समान कठोर शरीर वाली निष्ठुर स्त्री, तुम्हारे घर अतिथि आया है. उसका उचित साक्षत्कार नहीं करोगी. अपने हार्दिक भाव के अनुसार तो करो..
मित्रो इस तरह की भाषा और अपनी निंदा सुनकर कामकंटिका  क्रोध से बोली - हे भद्र पुरुष, तुम व्यर्थ  ही यहां चले आए. जीते - जी सुखपूर्वक लौट जाओ. यदि मुझे चाहते हो और जिन्दा भी रहना चाहते हो  तो शीघ्र कोई कथा कहकर यदि मुझे तुम सकते या संशय में डाल दोगे तो मैं तुम्हारे बस में हो जाऊंगी उसके बाद तुम्हारी सेवा होगी. उसके ऐसा कहने पर घटोत्कच ने तुरन्त भगवान श्रीकृष्ण को याद कर कथा प्रारंभ की. मित्रों कथा इस प्रकार
 मालू की पत्नी के गर्भ से कोई बालक उत्पन्न हुआ जो युवा होने पर अजितेंद्रिय निकला और उस युवक को एक बेटी हुई और उसकी बीवी मर गई. तब उसने अपनी पुत्री की रक्षा और पालन पोषण पिता ने ही किया. लड़की जब जवान हो गयी . तब अपनी ही बेटी पर बाप की बुरी नजर हो गयी. ऐसे में उस पापी बाप ने अपनी ही बेटी से कहा- प्रिये तुम मेरी पड़ोस की लड़की हो.बचपन में ही तुम्हारे माता –पिता गुजर गये थे. मैंने तुम्हें अपनी पत्नी बनाने के लिए यहां लाकर दीर्घकाल तक पालन पोषण किया है. अब मेरा अभीष्ट कार्य सिद्ध करो. ऐसा कहने पर उस लड़की ने ऐसा ही माना. उसने उसे पति रूप में स्वीकार किया और उसने उसे पत्नी के रूप में. उसके बाद उस लड़की के गर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई. अब बताओ ? कन्या उसकी क्या लगेगी ? पुत्री अथवा दमित्री. यदि तुम में शक्ति है तो मेरे प्रश्न का उत्तर दो ? मित्रों यह प्रश्न सुनकर मोरवी का दिमाद चकरा गया. उसने ने अपने हृदय में अनेक प्रकार से विचार किया किंतु किसी प्रकार से उसे इस प्रश्न का निर्णय नहीं सुझा. खुद को हारते देखकर चालाकी से जैसे ही तलवार लेने दौड़ी. फुर्ती से लपककर घटोत्कच ने उसके बाल पकड़ लिए और धरती पर गिरा दिया. फिर उसके गले पर बायाँ हाथ रखकर और दाहिने  हाथ में कथनी से उसकी नाक काट लेने का विचार किया. मोरवी ने बहुत हाथ पैर मार है किंतु अंत में शिथिल होकर उसने मन्द्सुर में कहा- नाथ मैं तुम्हारे प्रश्न से और शक्ति तथा बल से परास्त हो गई हूं. मैं तुम्हारी दासी हूं. जो आज्ञा दो! वही करूंगी. घटोत्कच ने कहा- ऐसी बात है तो चलो मैंने तुम्हें छोड़ दिया. घटोत्कच के छोड़ देने पर कामकंटिका ने पुनः उसे प्रणाम किया और कहा महाबाहो- मैं जानती हूँ ,तुम बड़े वीर हो, त्रिलोकी में कहीं भी तुम्हारे पराक्रम की कोई सानी नहीं है. तुम इस से पृथ्वी पर साठ करोड़ राक्षसों के स्वामी हो. यह बात मुझे कामाख्या देवी ने बताई थी वह सब आज याद आ रही है. मैं अपने सेवकों और धन के साथ अपना सारा घर तुम्हारे चरणों में समर्पित करती हूं. प्राणनाथ मुझे आज्ञा दो ! मैं किस आदेश का पालन करूं ? घटोत्कच ने कहा -मोरवी जिसके पिता और भाई बंधु मौजूद हैं उसका विवाह छिपकर हो यह किसी प्रकार से उचित नहीं है. इसलिए तुम शीघ्र मुझे इंद्रप्रस्थ ले चलो यही हमारे कुल की परिपाटी है. इंद्रप्रस्थ में गुरुजनो की आज्ञा लेकर मैं तुमसे विवाह करूंगा. तदंतर मोरवी अनेक प्रकार की सामग्री साथ लेकर घटोत्कच को अपनी पीठ पर बिठाकर इंद्रप्रस्थ में ले आई.[ मित्रों आज के जमाने में ऐसी पत्नी मिलेगी?] भगवान कृष्ण और पांडवों ने घटोत्कच का अभिनंदन किया. उसके बाद शुभ मुहूर्त में भीम के पुत्र और मोरवी का पाणिग्रहण हुआ. कुंती, द्रौपदी दोनों ही वधू को देखकर बहुत ही खुश हुई. विवाह हो जाने पर राजा युधिष्ठिर ने घटोत्कच का आदर सत्कार करके अपने राज्य जाने का आदेश दिया. हिडिम्बा कुमार अपनी राजधानी चला आया. वहां मोरवी के साथ काफी दिनों तक आनंद से जीवन बिताया. कुछ समय बाद मोरवी के गर्भ से महा तेजस्वी सूर्य के समान कांतिमान बालक उत्पन्न हुआ. वह जन्म से लेते ही युवावस्था को प्राप्त हो गया. उसने माता -पिता से कहा- मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूं. बालक के आज गुरु माता पिता ही हैं. अतः आप दोनों के दिए हुए नाम को मैं ग्रहण करना चाहता हूं. तब घटोत्कच ने अपने पुत्र को छाती से लगाकर कहा- बेटा तुम्हारे केश बर्बराकार अर्थात घुघराले हैं. इसलिए तुम्हारा नाम बर्बरीक होगा. तुम अपने कुल का नाम बढ़ाने वाले होगे. तुम्हारे लिए जो सबसे कल्याण दायक है उसके लिए हम लोग द्वारिकापुरी चलकर भगवान कृष्ण से पूछेंगे. उसके बाद घटोत्कच्छ अपने बेटे को लेकर द्वारिका गए. वहां पर उन्होंने उग्रसेन, वासुदेव साथ ही अक्रूर, बलराम और सभी यदुवंशियों को प्रणाम किया. पुत्र सहित घटोत्कच को अपने चरणों में देखकर भगवान कृष्ण ने उसे और उसके पुत्र को छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया। घटोत्कच ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि - हे प्रभु मेरे बेटे के मन में कुछ प्रश्न हैं जो पूछना चाहता है- भगवान कृष्ण ने कहा ठीक है पूछो बेटा- बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम करते हुए पूछा - हे भगवान संसार में उत्पन्न हुए लोगों का कल्याण किस साधन से होता है.
 मित्रों भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को  अनेक प्रकार से उत्तर देकर संतुष्ट कर दिया. उसके बाद बर्बरीक को समझाते हुए भगवान बोले - तुम क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए. तो अपना कर्तव्य सुनो. पहले तुम ऐसी शक्ति प्राप्ति के लिए साधना करो. जिसकी कहीं तुलना नहीं हो . फिर उससे दुष्टों का दमन और साधु पुरुषों का पालन करो. ऐसा करने से तुम्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी. बेटा देवों की अत्यंत कृपा होने से ही बल प्राप्त होता है. इसलिए तुम बल प्राप्त करने के उद्देश्य से देवी की आराधना करो. बर्बरीक ने पूछा प्रभु में किस क्षेत्र में? किस देवी की ? और कैसे आराधना करूं? किस प्रकार? ऐसा पूछने पर भगवान दामोदर ने कहा महिसागर संगमतीर्थ में जो गुप्त क्षेत्र के नाम से विख्यात है. वहां जाकर उनकी आराधना करो. वहीं नारद जी द्वारा बुलाई हुई नवदुर्गा में निवास करती हैं। वहां जाकर उनकी आराधना करो. उसके बाद भगवान कृष्ण ने घटोत्कच से कहा हे भीम नंदन तुम्हारा बेटा बहुत ही सुंदर हृदय वाला है. इसलिए मैंने इसे ‘’सुहृदय’’ यह दूसरा नाम प्रदान किया है। यह कह कर भगवान कृष्ण ने बर्बरीक को गले से लगा लिया और उसे अनेक प्रकार का उपहार देकर विदा किया. बर्बरीक ने वहां बैठे सभी यादवों को प्रणाम कर गुप्त क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया और घटोत्कच्छ की इंद्रप्रस्थ लौट आये. लगातार विधि विधान पूर्वक 3 वर्षों तक आराधना करने पर देवी बहुत प्रसन्न हुई और प्रत्यक्ष दर्शन देकर दुर्लभ शक्ति प्रदान की.
मित्रों दुर्गा देवी ने बर्बरीक को वहीं कुछ दिनों तक रुकने को कहा- माँ दुर्गा ने बर्बरीक को बताया इस गुप्त क्षेत्र में कुछ ही दिनों में विजय नामक एक ब्राम्हण आयेंगे. वे हमारे परम भक्त हैं. वे यहाँ देवी पूजन करेंगे.तुम्हें उसे निर्विघ्न सम्पन्न करना है.अगले ही दिन विजय ब्राह्मण आ गये और पूजा की तैयारी शुरू की. विजय ने भीम पुत्र बर्बरीक से कहा तुम निद्रा रहित एवं पवित्र हो. देवी के स्तोत्र का पाठ करते हुए यहीं रहो. जिससे जब तक मैं यह विद्या साधन सम्पन्न न कर लूँ.  तब तक किसी प्रकार का देखना  विघ्न न आने पाए. विजय के ऐसा कहने पर महाबली बर्बरीक खड़ा हो गया। तब विजय ने गुँ  गुरुभ्यो नमः, इस मंत्र से गुरुओं को नमस्कार किया और उसके बाद अष्टोतरशत बार जाप करने के बाद उसने भगवान गणेश का मंत्र पढ़ा।ॐ गां गीं गूं गैं गौं गः। पूजा के समय रात में दो राक्षस आए बारी - बारी से जिन्हें बर्बरीक भगा दिया. बाद में रेपलेंद्र  नामक राक्षस यज्ञ करते हुए विजय की तरफ दौड़ा. उसका शरीर एक जोजन लंबा था और उसके सौ पेट और सौ सर थे। उसके मुंह से आग निकल रही थी. बर्बरीक भी उसकी तरफ दौड़ा और दोनों ने काफी देर तक युद्ध हुआ और अंत में उसे बर्बरीक मार डाला और अग्नि कोण में महिसागर के तट पर फेंक दिया. रात के तीसरे पहर में एक राक्षसी आई जिसका आकार पर्वत की तरह था. जब वह चलती थी तो पृथ्वी हिल रही थी और जोर जोर से चिल्लाती थी उसका नाम द्रुह्दृहा था। बर्बरीक ने हंसते हुए उसे रोक लिया और फिर पकड़ कर धरती पर पटक दिया और गला दबा कर मार डाला. चौथे पहर में एक राक्षसी सन्यासी का रूप धारण कर सिर मुडाई दिगंबर भेष में आई और भारी भक्त होने का नाटक करने लगी. उसने यज्ञ को भ्रष्ट बताया .अहिंसा ही परम धर्म है. यह आग क्यों जलाया ? इस में छोटे जीव जल कर मर जाते हैं और पाप होता है. बर्बरीक बोला- आहुति देने से देवताओं की तृप्ति होती है.. तू झूठ बोल रहा है... तू कौन है...? और बर्बरीक ने उसे गुस्से से मारना शुरू किया. उसके दांत तोड़ दिए. फिर उसने अपना असली रूप दिखाया. फिर दोनों में बड़ा युद्ध हुआ. दैत्य बर्बरीक से छुड़ाकर एक गुफा में भाग गया. वह गुफा पाताल में खुलती थी. बहूप्रभा नामक नगरी में वह दैत्य रहता था. बर्बरीक पीछा करता हुआ वहां पहुंच गया. उसे देखकर बड़ी भारी संख्या में पलासी नामक दैत्यों ने बर्बरीक पर हमला कर दिया. चारों तरफ हाहाकार मच गया. बर्बरीक ने बड़ी बहादुरी से युद्ध किया. किसी का गला तोड़ दिया. किसी की छाती फाड़ दी. बर्बरीक ने अपनी बहादुरी से कोहराम मचा दिया. पलासी दैत्यों का समूल नष्ट कर दिया. राक्षसों को मारे जाने पर बासुकी नाग आए और बर्बरीक की स्तुति किए. क्योंकि वह भी प्लासी दैत्यों से पीड़ित थे। बर्बरीक उसके बाद पृथ्वी लोक लौट आए. विजय का यज्ञ पूरा हुआ और उन्होंने सभी सिद्धियां प्राप्त कर ली. उसके बाद वहां से बर्बरीक अपने घर के लिए प्रस्थान किए रास्ते में चंडिकाधाम में रुक गये. तभी पांचो पांडव वहां पहुंचे. वहां चंडीदेवी का मंदिर था पांडवों ने देवी का दर्शन कर वहीं विश्राम करना चाहा. चंडी देवी के गण भी वहां थे। बर्बरीक ने पांडवों को नहीं पहचाना और ना ही पांडवो ने बर्बरीक  को। तभी बर्बरीक ने भीम को तालाब में घुसकर हाथ-पैर धोते देखा तो उन्हें बुरा लगा. बर्बरीक ने भीम से कहा  पानी लेकर बाहर हाथ पैर धोइए. तालाब का पानी दूषित हो जायेगा यह नदी नहीं है. भीम ने बर्बरीक कीबात को अनसुना कर दिया. फिर क्या बातों – बातों में बात बढ़ गयी और दादा पोते में युद्ध शुरू हो गया.बहुत देर तक घमासान युद्ध हुआपर धीरे- धीरे भीम कमजोर पड़ने लगे.आखिरकार घटोत्कच भीम को दोनों हाथों से उठाकर समुद्र में फेकने कि लिए समुद्र की तरफ दौड़ा.तभी भगवानशंकर ने आकाशवाणी की...हे बर्बरीक जिन्हें तुम समुद्र में फेकने जा रहे हो वह तुम्हारे पितामह और घटोत्कच के पिता भीम हैं.इन्हें छोड़ दो.
आकाशवाणी सुनकर बर्बरीक बड़ा लज्जित व दुखी हुआ.उसने भीम को जमीन पर तुरन्त उतार दिया. हाथ जोड़कर क्षमा मांगी. अपने पितामह के साथ दुर्व्यवहार और उनके हत्या के प्रयास से बर्बरीक इतना ग्लानी से भर गया कि उसने समुद्र में डूबकर आत्महत्या करने के लिए समुद्र की ओर तेजी से बढ़ा... भीम पीछे- पीछे पुत्र-पुत्र पुकारते हुए आये. बर्बरीक को आता देख समुद्र भी डर गया.वह सोंच में पड़ गया कि कैसे मैं बरबरीक की जान लूँगा. तभी भगवती सिद्धम्बिका और भगवान रूद्र ने आकर बरबरीक से कहा – तुमसे यह गलती अनजाने में हुई हैं तुम्हें तो मालूम ही नहीं था कि भीम तुम्हारे पितामह हैं. अनजाने में किये पाप से दोष नहीं लगता. तभी भीम ने आकर बरबरीक को गले लगा लिया. भीम बोले – अगर तुम जीवित नहीं रहोगे तो मैं भी तुम्हारे साथ प्राण त्याग दूंगा.तब जाकर बरबरीक ने उदास मन से आत्महत्या का विचार त्याग दिया. फिर सभी पांडवों ने बर्बरीक को स्नेह किया एवं आशीर्वाद दिया.
मित्रों उसके बाद बर्बरीक अपने पिता के पास लौट गया.एक लम्बे समय बाद जब महाभारत युद्ध की तैयारियाँ चल रही थी और इस होनेवाले विश्वयुद्ध की  की चर्चा चारो दिशाओं में फैल गयी. ऐसे में ये जानकारी बर्बरीक तक भी पंहुँची. उसने भी युद्ध में भाग लेने की इच्छा अपनी माता मोरवी से जताई.. मोरवी ने अपने पुत्र बर्बरीक से कहा – तुम युद्ध में अवश्य भाग लो पर युद्ध उसकी तरफ से करना जो हार रहा हो .... बर्बरीक जब युद्ध के मैदान कुरुक्षेत्र की तरफ घोड़े पर सवार होकर बढ़ा तो अन्तर्यामी श्रीकृष्ण को पता चल गया. वे रास्ते में ही उसे रोक लिए और पूछे तुम किसकी तरफ से युद्ध करोगे. बर्बरीक ने कहा जो हारनेवाला होगा उसकी तरफ से.... कृष्ण जानते थे कि कौरव हारेंगे... उन्होंने पूछा तुम इस युद्ध को कितने दिन में जीत सकते हो. बर्बरीक ने कहा कुछ पलों में. उसने अपने तीन अमोघ बाण दिखाए. एक लाल बाण जो दुश्मनों को चिन्हित करेगा. दूसरा उनको मारेगा. तीसरा अपने पक्ष के लोगों को बचाएगा. इसी बीच अचानक कृष्ण ने बर्बरीक का सिर सुदर्शन चक्र से काट लिया.
[ मित्रों कृष्ण द्वारा बर्बरीक के सिर काटने का कारण उसका पूर्व जन्म का श्राप था.पूर्व जन्म में बर्बरीक स्वर्गलोक में सुर्यवर्चा नामक यक्ष /गंधर्व था. उस समय नरका सुर और मूर दैत्य का बेहद आतंक था मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित हो पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित हो बोली- हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ.... पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जातिका भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भांति करती रहती हूँ,पर मूर दैत्य के अत्याचारों एवं उसके द्वारा किये जाने वाले अनाचारो से मैं दुखित हूँ,... आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ... 
गौस्वरुपा धरा की करूँण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा सा छा गया...थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्मा जी ने कहा- अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय यही है, कि हम सभी को भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए...
 तभी देव सभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा -हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें, हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए... आप लोग यदि मुझे आज्ञा दे तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ ...
इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले - नादान! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ , तुमने अभिमानवश इस देवसभा को चुनौती दी है ... इसका दंड तुम्हे अवश्य मिलेगा... आपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी ! तुम इस देव सभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे ... तुम्हारा जन्म राक्षस कुल में होगा,तुम्हारा शिरोछेदन एक धर्मयुद्ध के ठीक पहले स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे...
ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही देव सूर्य वर्चा का अभिमान भी चूर चूर हो गया... वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ाऔर विनम्र भाव से बोला -भगवन ! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दे... मैं आपकी शरणागत हूँ... त्राहिमाम ! त्राहिमाम ! रक्षा करो प्रभु...
यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुणा भाव उमड़ पड़े... वह बोले - वत्स ! तुने अभिमान वश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ, हाँ इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ, कि स्वयं भगवन विष्णु तुम्हारे शीश का छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा, फलतः तुम्हे देवताओं के समान पूज्य बननेका सौभाग्य प्राप्त होगा...
तत्पश्चात भगवान श्रीहरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सुर्यवार्चा से कहा -

"उस समय देवताओं की सभा में श्रीहरि ने कहा - हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी, और तुम देव रूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे...
अपने अभिशाप को वरदान में परिणिति देख कर सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गए... ]


  फिर कृष्ण ने देवी चंडिका से कहकर बर्बरीक के सिर को अमृत से सिंचित करवाकर अमर करा दिया.तब बर्बरीक के शीश ने कृष्ण से पूरा युद्ध देखने की इच्छा जताई. भगवान कृष्ण ने कहा एवमस्तु ....बर्बरीक का शीश पर्वत की सबसे ऊँची चोटी पर रखवा दिया. जहाँ से बर्बरीक ने सम्पूर्ण महाभारत देखी. युद्ध में विजयी होने पर पांडवों को घमंड हो गया. भीम को लगता था युद्ध में उनके कारण जीत हुई .अर्जुन को लगता मेरे कर्ण जीत हुई. कृष्ण ने कहा चलिए बर्बरीक से पूछते हैं किसके कारण जीत हुईक्योंकि उन्कोने पूरा युद्ध देखा है . बर्बरीक से पूछने पर बर्बरीक ने बताया किमैंने  सिर्फ कृष्ण के सुदर्शन चक्र को युद्ध करते देखा.उसी ने कौरवों का नाश किया. शेष किसी को नहीं. यह सुनकर सभी पांडव लज्जित हो गये . बर्बरीक की बात सुनकर देवलोक से पुष्प वर्षा होने लगी . इसके बाद में श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से अपने कृत्य के लिए क्षमा भी मांगी.भगवान कृष्ण ने बर्बरीक को वरदान दिया कि तुम कलयुग में श्याम नाम से पूजे जाओगे. मित्रों वही बर्बरीक आज खाटूश्यामजी के नाम से प्रसिद्द हैं कालान्तर में वीर बर्बरीक का शालिग्राम शिला रूप में परिणित वह शीश राजस्थान के सीकर जिले के खाटू गाँव में चमत्कारिक रूप से प्रकट हुआ और वहाँ के राजा के द्वारा मंदिर में स्थापित किया गया... श्रद्धालु आज उन्हें खाटूश्याम के नाम से पूजते हैं

शनिवार, 20 अगस्त 2016

चवन्नी का मेला: क्या कोई राहुल, कोई केजरी, कोई राजा, कोई त्यागी कोई मीडिया लवकेश की आत्महत्या पर लब खोलेगा

चवन्नी का मेला: क्या कोई राहुल, कोई केजरी, कोई राजा, कोई त्यागी कोई मीडिया लवकेश की आत्महत्या पर लब खोलेगा

चवन्नी का मेला: पट्टीदार

चवन्नी का मेला: पट्टीदार

चवन्नी का मेला: हिंदी बने भारत की राष्ट्रभाषा

चवन्नी का मेला: हिंदी बने भारत की राष्ट्रभाषा

चवन्नी का मेला: अटल जी बनने की कोशिश मत करिए मोदी जी फेल हो जायेंगे

चवन्नी का मेला: अटल जी बनने की कोशिश मत करिए मोदी जी फेल हो जायेंगे

सोमवार, 8 अगस्त 2016

अटल जी बनने की कोशिश मत करिए मोदी जी फेल हो जायेंगे

मित्रों नरेन्द्र मोदी जी प्रधानमंत्री बनने के बाद काफी बदल गये हैं. अब वे सिर्फ ''मोदी जी'' रह गये हैं.पहले वाला नरेन्द्र लुप्त हो गया है.उनका गौरक्षकों के खिलाफ दो दिन में दो बयान आ चुका.  प्रधानमंत्री का दो बार बयान आना बड़ी बात है. हाँ कुछ लोग गलत हो सकते हैं पर 80 प्रतिशत..... इससे पहले कई गौरक्षकों की हत्या भी हुई. आप मौन थे. मोदी जी के सत्ता में आने के बाद केरल और बंगाल में आरएसएस के अनेकों कार्यकर्ताओं व धार्मिक व्यक्तियों की जघन्य हत्या हुई. आप मौन थे.सिविल सेवा में हिन्दी के मुद्दे पर बड़ा आन्दोलन हुआ, छात्र पिटे भी . छात्रों को आप से बड़ी आशा थी और आप मौन थे.मालदा में दंगे हुए और वहां पुलिसकर्मियों को पीटा गया तथा थाने में तोड़फोड़ की घटना हुई.आप मौन थे.जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे करने वालों को कुछ लोग नायक के रूप में देश भर में पेश कर रहे हैं.और आप मौन रहे, स्वाति सिंह उनकी बेटी, माँ  को पेश करो मुद्दे पर आप मौन रहे जबकि दयाशंकर सिंह पर आप ने तुरंत करवाई की.बुलंदशहर की वीभत्स घटना हुई. आप मौन थे. जातिवादी पत्रकारिता टीवी पर छाई हुई है.जातिदेखकर खबर लिखी जा रही है.आप मौन. चैनलों के मुख्य विषय और बहस का केंद्र आतंकवादी हैं और सेना खलनायक. आप मौन .कैराना से पलायन की  बड़ी घटना हुई. आप इन सभी घटनाओं पर मौन रहे..... ये क्या है मोदी जी...  लोगों ने गुजरात वाले नरेंद्र मोदी को वोट दिया था .... दहाड़ने वाले 56 इंच के सीने वाले मोदी को वोट दिया था. अब आप उदारवादी छवि बनाना चाहते हैं.... अटल बिहारी वाजपेयी बनना चाहते हैं.... आप को नरेंद्र मोदी होने के कारण 33 वर्ष बाद पूर्ण बहुमत मिला. अटल होने के कारण नहीं. अटल जी महान होते हुए भी पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त कर सके. ये सब क्यों...जब अवार्ड वापसी प्रायोजित लहर चल रही थी. तब आप के साथ वही लोग थे जिनके दुःख पर आप मौन थे. जो आज तक आप को कोसते रहे, आप के इस बयान से उन्हें खुस किया. पर वे भी नागनाथ हैं, गिरगिट हैं, इस तरह से आप महान नेता नहीं बन पायेंगे. बनावटी चरित्र ज्यादा समय तक नहीं टिकता. मैंने आप को वोट दिया. बेरोजगार हो गया हूँ. सब कहते हैं जब से बीजेपी आयी है मंदी आ गई है. मैंने 101 रूपये का चंदा भी दिया था. वे पैसे बिजली के बिल के लिए रखा था. आनलाइन सदस्यता भी ग्रहण की थी. मैं लेखन के क्षेत्र में उभरता हुआ लेखक हूँ. आप के पक्ष में खड़ा होने के कारण अछूत बना दिया. मैंने आप को लम्बा पत्र भी लिखा था. आप के उप सचिव ने जवाब भेजा .... आप का पत्र मिला.... बस  खैर साहित्य में वामपथियों को वर्चस्व है. उन्होंने मुझे दक्षिणपंथी व पुरातनपंथी भाजपाई कहकर लेखक समाज से बाहर करने का पूरा प्रयास किया.आज भी बेरोजगार हूँ. विश्व हिन्दू परिषद् के मुंबई से प्रकाशित पत्र में मैंने ही सर्वप्रथम लिखा था कि ‘मोदी को देश का प्रधानमंत्री क्यों होना चाहिए’? बीजेपी मुंबई के एक स्थानीय नेता ने आप पर विशेषांक निकाला था. उसका अतिथि सम्पादक मैं था. आज मुझे दुःख होता है कि मैंने मोदी का साथ क्यों दिया. जिस कारण से दिया वो तो पूरा ही नहीं हुआ. आप के सांसद और मेरे भी सांसद शरद त्रिपाठी के संसदीय क्षेत्र के तहसील धनघटा के गराँगरवीर में एक दलित के इकलौते 6 वर्षीय बेटे की हत्या हो गयी थी. मैंने ट्विटर पर विशेष सन्देश आप को, सुषमा जी को, शरद जी, वरुण गांधी जी को किया था,पर कोई जवाब नहीं आया. क्या आप की यही सम्वेदनशीलता है.वो दलित, दलित नहीं था. आप कहाँ  और कब बोलेंगे या कदम उठाएंगे जहाँ आप को राजनीतिक फायदा मिले. आप ने कई अच्छे कार्य भी शुरू किये है.पर उल्टे तरीके से..... आप ने ऊपर से काम शरू किया. जबकि नीचे से करना चाहिए था.जिससे तुरंत सबसे पहले आम आदमी को फायदा हो. मैंने आनलाइन भाजपा की सदस्यता ली थी. इसलिए आनलाइन ही सदस्यता त्यागने की घोषणा करता हूँ. आप के इस बनावटी चाल – चलन का फैसला उत्तर प्रदेश का चुनाव करेगा. आप अटल जी बनने की कोशिश न करें अन्यथा न अटल बिहारी वाजपेयी बन पाएंगे न नरेंद्र मोदी ही रह जायेंगे.


शनिवार, 6 अगस्त 2016

हिंदी बने भारत की राष्ट्रभाषा

मित्रों परसों अर्थात 1 अगस्त 2016  मुझे अचानक एक  अपरिचित व्यक्ति का फोन आया. उन्होंने कहा- मेरा नाम बिजय कुमार जैन है और मैं मराठी पत्रकार संघ में 3 अगस्त को दोपहर में एक संवाददाता सम्मेलन कर रहा हूं. जिस का विषय है ''हिंदी बने भारत की राष्ट्रभाषा''.आप उसमें जरुर आइये. मैंने कहा अवश्य आऊंगा. बात हिन्दी की जो है.इस सम्वाद से पहले मैं उन सज्जन को जानता भी नहीं था, लेकिन मुझे सुनकर खुशी हुई कि एक व्यक्ति हिंदी के लिए विशेष प्रयास कर रहा है. अपने जेब से पैसा खर्च करके  मराठी पत्रकार संघ बुक किया , उसका नाश्ता का खर्चा, हाल का खर्चा वहन किया. सिर्फ इसलिए कि हिंदी राष्ट्रभाषा बने. मुझे खुशी हुई. मैंने कहा मैं आऊंगा और मैं गया. क्योंकि मुंबई में बारिश काफी हो रही है तो लोकल ट्रेन 45 मिनट लेट चल रही  थी . 2.04pm की लोकल मुझे 2.44pm पर  मुलुंड से मिली और मैं 3.20 pm पर जाकर मराठी पत्रकार संघ में उपस्थित हुआ. उस समय वरिष्ठ पत्रकार और लोकसत्ता के संपादक ''कुमार केतकर'' जी बोल रहे थे. वहां जाकर पता चला कि बिजय कुमार जैन ''मैं भारत हूं'' नाम की हिन्दी मासिक पत्रिका निकालते हैं.  उसी पत्रिका और हिंदी वेलफेयर ट्रस्ट के संयुक्त तत्वाधान में उन्होंने यह संवाददाता सम्मेलन किया. मित्रों ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है. एक पत्रकार  जो हिंदी के लिए विशेष प्रयास कर रहा है.      उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री सहित सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को उन्होंने पत्र लिखा है कि वे इस मुद्दे को अपनी विधानसभा में उठायें और पास करें और भी तमाम प्रभावशाली लोगों को पत्र लिखकर हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में संसद से पास कराने का निवेदन किया. वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर ने भी कहा कि एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए और एक राष्ट्रभाषा के तौर पर हम हिंदी का समर्थन करते हैं भले ही हम मराठी भाषी हैं और हम जानते हैं कि मराठी का उतना विशाल फलक नहीं है . हमारा हिंदी से कोई विरोध नहीं, हम हिंदी के समर्थन में है बशर्ते कि मातृभाषा का सम्मान होना चाहिए. मातृभाषा फिर राष्ट्रभाषा और वहां पर उपस्थित सभी पत्रकारों ने समर्थन किया. जिसमें मैंने भी अंत में अपनी बात रखी. तो मित्रों मुझे लगता है कि जो भी हिंदी से प्यार करता है. जो भी अपने राष्ट्र से प्यार करता है. जो स्वयं को राष्ट्रवादी कहता है. उसे भी हिंदी को बढ़ावा देने के लिएसर्व प्रथम स्वजीवन की दैनिक दिनचर्या में  हिन्दी का सतत प्रयोग करना चाहिए . जैसे कि आप अगर सोशल मीडिया पर हैं तो अपनी बात हिंदी में रखें और कोशिश करें देवनागरी में लिखें. दूसरी बा आप अपने हस्ताक्षर हिंदी में करें.
     यदि आप कहीं जाए किसी अधिकारी के कार्यालय में  या और  कहीं जहां आप को अपना परिचय लिखना हो, तो कम से कम अपना नाम, अपना स्थान परिचय हिंदी में लिखें. ये छोटी चीजें हैं. पर इनका प्रभाव दूरगामी है .  छोटी सी चीजें धीरे- धीरे बड़ी होती हैं. लोग प्रेरित होंगे. अगर आपको बढ़िया अंग्रेजी का ज्ञान है और हिंदी का ज्ञान है. तो आप अंग्रेजी के बदले हिंदी का प्रयोग करें. किसी  भी व्यक्ति से , जब भी वार्ता करें तो हिंदी में करें. जब तक कि यह आप को पता न चल जाए कि उसे हिंदी नहीं आती है. आप बैंक में अपना हस्ताक्षर हिंदी में या अपनी मातृभाषा में करें. क्योंकि हस्ताक्षर एक कैसी चीज है. जो आप को एक अलग पहचान देती है. आप कहीं जाते हैं. तो लोग कहते हैं. अपना हस्ताक्षर करिए. बैंक में आप बगैर हस्ताक्षर के पैसे नहीं निकाल सकते. आप कितने भी बड़े आदमी क्यों न हों? कितना भी बड़ा पहचान पत्र आप दिखा दें. लेकिन जब तक आप चेक पर हस्ताक्षर नहीं करते, तब तक आप को पैसा बैंक नहीं देता. इसलिए हस्ताक्षर अपनी मातृभाषा  या हिंदी में करें .यह छोटी-छोटी चीजें हैं पर इनका दूरगामी प्रभाव है.  विजय कुमार जैन का कार्य बड़ा  और कठिन है. मैं चाहता हूं कि लोग बिजय कुमार को प्रोत्साहित करें. उनके इस अभियान में साथ दें. ''हिंदी वेलफेयर ट्रस्ट'' और ''मैं भारत हूं'' के बैनर तले जो अभियान शुरु किया है उस में आप सब सहयोग दें. हिन्दी नये सर्वे और शोध के अनुसार चीनी भाषा मंदारिन को पछाड़कर विश्व में सबसे अधिक बोली व समझे जाने वाली भाषा बन गयी है

रविवार, 31 जुलाई 2016

पट्टीदार

पट्टीदार


24 साल पहले की बात है.
मैं बना था बड़ा भाई
घर में कई दिनों तक सोहर गूंजता रहा.
सब खुस थे, मैं भी था बेहद खुस
ढाई साल बाद सबसे छोटा भाई भी आ गया.
और उसके बाद सबसे छोटी दुलारी भी आ गई.
अब हम 8 भाई – बहन थे. और मैं 10 साल का
भाई जब तक गोंद में खिलाने लायक थे.
 उन्हें गोंद में खिलाया,
जब कंधे पर बिठा कर घुमाने लायक थे
उन्हें कंधे पर बिठाकर सारा गाँव,
बाग, खेत-खलिहान और मेला भी घुमाया
खुसी और गर्व से, बड़ा भाई जो था.
फिर थोड़े और बड़े हुए ...चलने लगे उँगलियाँ पकड़ कर
फिर खर्चे भी बढ़ गए भरण-पोषण के
बड़ा होने के फर्ज निभाने का समय आ गया था
बीमार माँ, बड़ी बहनों का विवाह,
छोटे भाई – बहनों की शिक्षा
और रेहन पर रखा खेत .
सब मेरी तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे थे
मैंने उनकी उम्मीदों की बलि खुद को चढ़ा दी.
उम्र के 15वें साल में आ गया शहर
की हाड़ तोड़ मेहनत, साफ़ किये लोगों के जूठन
बदले में भर सका थोड़ा-थोड़ा 8 लोगों जीवन में रंग.
पहली बार पहुँचा शहर से गाँव
सारा परिवार उत्सव में डूब गया.
सिर्फ छोटी के सिवा ... 3 साल बाद जो गया था.
उसे याद भी नहीं रहा अपने भईया का चेहरा
अब वो 6 साल की थी,
पर फ्राक,गुडिया और मिठाई
पा जाने के बाद वह पहचान गयी.
सबके लिए कुछ न कुछ लाया था.
अम्मा के लिए खटाऊ की साड़ी,
बाबू जी के लिए धोती - कुर्ता,
भाइयों के लिए पैंट-शर्ट और जूते
बहनों के लिए शूट,और भी बहुत कुछ
साथ में 5 हजार रूपये
जो रेहन छुड़ाने के लिए था.
जो आते ही बाबू जी के हाथों में रख दिया था.
नहीं ले सका तो अपने एक नया चप्पल,
मैंने अपने पुराने चप्पल को दो बार सिला चुका था.
परिवार की इज्जत और रेहन के खेत के जोड़ -घटाव के बीच.

समय तेजी दे दौड़ रहा था. जब भी गाँव जाता
अम्मा कहती- बस कुछ दिनों की बात है.
तुम्हारे दोनों भाई भी कुछ ही सालों में
 तुम्हारे दोनों बाजू बन जायेंगे.
भाइयों के बढ़ते बदन को देखकर खुसी होती
जैसे किसान को अपनी लहलहाती फसल देखकर होती
कभी कन्धों पर बैठकर घूमने वाले भाई
अब कन्धों के बराबर हो गये थे.
इस बीच हुआ मेरा विवाह,
आई जीवन में नई सहयोगी.
सहयोग से हुए दो ख़ूबसूरत बच्चे.
और अचानक बढ़ गये कई खूबसूरत खर्चे


गाँव वाले, रिश्तेदार  कभी – कभी अम्मा से कहते
आप को अब किस बात की चिंता, बहू आ गई
अब तो आप के तीनों बेटे जवान हो गये.
मैं भी बेहद था खुस. भाई भी आ गये शहर कमाने
साथ थे पत्नी और बच्चे भी. पिता जी की बीमारी के बाद
छुटकी भी हो गई बीमार, लाया शहर कराया दवा
हो गया कर्ज, खेती के लिए बाबू जी ने मांगे भाइयों से पैसे
भाइयों ने कहा- भईया से क्यों नहीं मांगते
बाबू जी ने समझाने की कोशिश  
मेरी और छुटकी की दवा के बाद उनका भी अब है परिवार
भाइयों ने बाबू जी से कहा - उनका परिवार वो देंखें
बाबू जी का गला भर आया – बोले अब तुम भाई नहीं रहे
पट्टीदार हो गये हो... और फोन रख दिया






गुरुवार, 7 जुलाई 2016

बाऊजी और कल्लू





जाड़े का मौसम था.मकर संक्रांति स्नान का पर्व एक दिन बाद था. एक दिन पहले हीमैं,अम्मा,पड़ोस वाली चाची, चार-पांच लड़कियां और पूरब के टोले की कुछ औरतें भीमकर संक्रांति का स्नान और मेला देखने के ध्येय से तैयार होकर शाम 4:00 बजे घर से पैदल निकले. हमारे गांव से सरयू जी 9 किलोमीटर दूर हैं .पर आम आदमी उन्हेंसरयू नहीं बल्कि गंगा जी ही कहता है.मकरसंक्रांति पर प्रतिवर्ष गांव की महिलाएं भोर में ही उठ कर पैदल ही भक्ति लोक गीत गाते राम घाट तक जाती थी.वहाँ स्नान और पूजा के बाद,थोड़ा मेला-बाजार आदि घूम कर दोपहर अथवा शाम तक घर वापस आ जाती थी, गाँव में सब मकरसंक्रांति खिचड़ी कहते हैं. मकर संक्रांति के कारण शिवालय अथवा राम घाट पर बहुत भीड़ रहती थी.इस दिन मनौती वालों का भी हुजूम रहता.जिनकी मनौती गंगा जी ने या राम जी ने या शिव जी ने मान ली थी. वे अपने वादे के मुताबिक ‘’कड़ाही’’ चढ़ाते. जगह- जगह चूल्हों पर पूड़ी, लपसी, तरकारी, पंजीरी पक रही होती.वहीं घाट के दूसरी तरफ बाल उतारने वाले नाइयों के यहाँ भी रहती. ये भी मनौती वाले ‘’बाल’’ होते. कि हे गंगा माई अगर हमारा फलां काम हो गया तो अबकी अपना बाल आप के तट पर ही या आप के सामने उतरवाऊंगा. सोचिये हमारे ‘’देव’’ भी कितने सरल हैं कि पूड़ी,लपसी और पंजीरी में भी मान जाते हैं ये तो ठीक है पर सिर के बाल से उन्हें क्या लाभ?खैर बड़ा से बड़ा काम कर देते हैं. आप किसी आदमी को पंजीरी खिला कर कोई काम करवा लीजिये तो जानू. इस दिन मेले की भीड़ में गुम होने की संभावना ज्यादा रहती थी.खिचड़ी के मेले में सरकार भी ढेरों व्यवस्था करती है. मेले में लोग अक्सर गुम हो जाते हैं ख़ासकर बच्चे. सरकार उसके लिए लाउडस्पीकर की व्यवस्था करती थी,वहां से जानकारी दी जाती थी.साईकिल स्टैण्ड, लगवाती थी,अस्थाई पुलिस चौकी भी बनवाती थी.फिर भी हर साल लोग गुम होते, हर साल साईकिल की चोरी होती.हर साल लडकियाँ छेड़ी जाती.फिर भी हर साल पिछले साल से ज्यादा लड़कियां खिचड़ी नहाने आती और हर साल कुछ लौंडे सोहदागिरी में पिटते.हर साल दुकानदारों से स्थानीय रंगबाज जजिया कर वसूलते.हर साल कपड़े और अच्छे जूते चोरी होते.फिर भी खिचड़ी की रौनक कम नहीं होती.हजारों-हजारों श्रद्धालु एक साथ सरयू जी की के पावन जल से उत्तरायण होते सूर्यनारायण को अर्ध्य देकर स्वयं को धन्य करते और उसके उपरान्त जिसके पास जो होता जैसे तिल-गुड़, दाना-भेली, गट्टा या बताशा- दाना वो ग्रहण करते .  एक बार मेले में सूर्योदय के बाद घुस गये तो फिर निकलना मुश्किल हो जाता था.मेले से बाहर निकलने में दो-दो घंटे लग जाते थे.सो मकर संक्रांति में एक दिन पहले ही जाकर शिवालय की धर्मशाला में रात गुजारते थे और अगले दिन 4:00 बजे भोर में ही स्नान-पूजा व मेला आदि करके निकल लेते और दोपहर के करीब घर पहुंच जाते. प्रतिवर्ष इसी तरह होता रहता था.परंतु इस बार अम्मा के साथ में मैं और मेरा कुत्ता कल्लू भी था. अम्मा और मैंने कल्लू को वापस घर भेजने की काफी कोशिशें की. ढेलों से मारकर. ईंट के टुकड़ों से मार–मार कर, वापस घर की तरफ भगाने की, परंतु सभी प्रयास विफल रहे. आखिरकार हार मानकर उसे साथ ले जाना पड़ा,अथवा यूं कहिए कि - वह माना ही नहीं. हमारी टोली  बतियाते, भजन गाते बीच-बीच में सुस्ताते हुए शाम 7:00 बजे गंगाजी [ सरयू ] तट पर पहुंच गई.धर्मशाला में जमीन पर पुवाल बिछाकर उसके ऊपर कंबल,कथरी,गद्दा जिसके पास जो था,सबने एक कतार में बिछौना लगा लिया था.हमारी टोली आख़िरी टोली थी. जिसे शिवालय वाली घर्मशाला में जगह मिली.धर्मशाला में अब रिक्त स्थान भरने की जगह नहीं थी. हमारा बिछौना धर्मशाला के द्वार तक पहुँच गया था.आख़िरी सदस्य कल्लूजी थे.कल्लू के लिए भी अम्मा ने समान व्यवस्था की थी. कल्लू भी अपने बिछौने पर जाकर चुपचाप लेट गया. उसके बाद उसके ऊपर अम्मा ने एक मोटा बोरा डाल दिया.ताकि कल्लू को ठंड न लगे.धर्मशाला के पीछे भंडारा लगा था. जो राशन अथवा भोजन बनाने का सामान नहीं लाये थे .वे जाकर भंडारे में खा रहे थे, या जो राशन लाये थे या जिनसे ठण्ड ने भोजन बनाने की हिम्मत छीन ली थी,वे भंडारे में अपना राशन समर्पित कर,बना-बनाया भंडारे का अन्न ग्रहण कर आते.हमारी पलटन के अधिकांश लोग सीधा लेकर आये थे.उसे भंडारे में चढ़ा कर पूरी पलटन ने भोजन ग्रहण किया, सिर्फ मुझे और कल्लू को छोड़कर, हम धर्मशाला में सामान की चौकीदारी कर रहे थे. भंडारे से खाना-खाकर पूरी पलटन जब लौटी.तो हम दो चौकीदारों के लिए ढाख के पत्तों में भोजन ढककर ले आई . भोजन के उपरान्त पूरी पलटन जल्द ही सो गई.क्योंकि भोर में ही उठना था.मुझे तो सबसे पहले नींद आ गई. मुझे कब नींद लगी मुझे पता ही नहीं चला.भोर में ही सब लोग उठ गए.अम्मा ने मुझे झिंझोड़ कर जगाया. मेरी नीद खुल गयी थी पर मैं सोने का नाटक कर रहा था.ठंडक की वजह से मैं कंबल से बाहर नहीं निकलना चाह रहा था,अम्मा ने मेरी कंबल से न निकलने की जिद देख कर कहा- अच्छा चलो, तुम नहाना मत,कंकड़ी [ हाथ–पैर-मुँह धोना ] स्नान कर गंगा माई को प्रणाम कर लेना.कंकड़ी स्नान का नाम सुन मुझमें थोड़ी हिम्मत आयी.खुद को कंबल से बाहर किया. कांपते – कांपते गंगामाई के तट पर पहुंचा.नहाने वालों की भीड़ लगी थी.माली फुल की डली लेकर श्रद्धालुओं के अगल – बगल मंडरा रहे थे.हाँ माली मांगते नहीं थे. गंगा जी को फूल चढाने के बाद श्रद्धालु जो चार आना–आठ आना दे दें.चुपचाप रख लेते थे .पंडों ने अपने टाट, बोरे और चटाई बिछा रखे थे.उन पर श्रद्धालुओं ने अन्न दान के रूप में नई फसल ‘धान’ की ढेरी लगा दी थी, कुछ ने गेहूं और जौ भी दान किये थे. किसान स्नान के बाद गंगामाई की जय के साथ ताज़ा फसल ‘धान’ मुट्ठी से बीच धारा की तरफ फेंकते.गंगा माई को धन चढ़ाकर बाहर निकलते तो बाहर पंडा बाबा रक्षा और तिलक की डिबिया लेकर खड़े मिलते . हर पंडे के बोरे या चट पर  एक–दो दर्पण और कंघी भी रखी रहती. लोग तिलक निहारकर और केश सुधारकर यथा स्थान दर्पण कंघी वापस रख देते .श्रद्धालुओं को आकर्षित करने के ये पंडों के सहज तरीके थे.लोग कपड़े उन्हीं टाटो और बोरों पर रखते और बदलते.चारो तरफ ठण्ड से भरी कीचड़, शीत, बर्फीला जल, फिर भी लोगों में उत्साह,हजारों-हजारों डुबकियाँ प्रतिपल और साथ ही हजारों-हजारों स्वर, एक साथ संगीत की तरह गंगा माई की जय,हर हर गंगे,ॐ नमः शिवाय....  से पूरा सरयू तट गूंज रहा था.शायद यही श्रद्धा की शक्ति है.4 बजे भोर में रात और दिन के मध्य का समय .थोड़ा अँधेरा थोड़ा उजाला.ऐसी पवित्र छटा किसी और देश या संस्कृति में शायद ही हो.तट पर पहुँच कर मुझे और ठण्ड लगने लगी.मेरे पीछे-पीछे कल्लू भी आ गया.उस समय मेरी उम्र 10 साल की थी.मैं पांचवीं कक्षा का छात्र था.मैंने चारो दिशाओं में हल्की नज़र दौड़ाई.तभी मेरी नजर मेरे बगल में खड़े एक लड़के पर पड़ी और उसकी नजर मुझ पर.मुझे देखते ही वह बोल पड़ा ,अरे पंडित तुम खड़े क्यों हो? नहा लो जल्दी से ! देखो मैं नहा चुका. दरअसल वह मेरे पड़ोस के गांव कादीपुर के मौर्याजी का लड़का था.
हम एक ही प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे.फर्क इतना था कि मैं पांचवीं कक्षा में था और वह चौथी में.मुझे विद्द्यालय में अधिकतर लोग पहचानते थे.उसका कारण मेरा अपनी कक्षा का कप्तान [मोनीटर] होना था.15 अगस्त और 26 जनवरी के राष्ट्रीय समारोह के अवसर पर सर्वप्रथम मेरे द्वारा ही सरस्वती वन्दना एवं गणेश जी के श्लोक वाचन से कार्यक्रम की शुरुआत होती थी.फिर सावधान-विश्राम उसके बाद राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत, कार्यक्रम का संचालन भी मैं करता था,पढ़ने में भी ठीक था. रैली में अंताक्षरी व नाटक स्पर्धा में मैं ब्लाक स्तर पर प्रथम आ चुका था. यह तो मेरी पहचान व प्रसिद्धि वाली बात हो गई .अपने मुंह मियां मिट्ठू वाली बात.खैर छोड़ए, मुझे मौर्या जी के लड़के की बात सुनकर अपमान-सा लगा.मैंने सोचा यह नहा सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं ? मैंने ‘’आव देखा न ताव’’ कपड़ा उतारा और गंगा जी में उतर गया. सरयू जी का पानी इतना ठंडा था कि मेरा हाथ-पैर सुन्न हो गया.हिम्मत करके फटाफट 3-4 डुबकियां लगाई और झट से बाहर निकल आया. अम्मा देख कर सोच में पड़ गई कि कहां कंबल से बाहर नहीं निकल रहा था,और अब कहां खुद नहा कर बाहर आ गया.अम्मा तो पहले ही नहा चुकी थी. अब समस्या यह थी कि मैं पैजामें की डोरी नहीं बांध पा रहा था.कारण उंगुलियां ठंड की वजह से काम नहीं कर रही थी.एकदम सुन्न.फिर अम्मा ने कपड़े पहनाए व धर्मशाला में आग के पास लाकर उन्होंने मुझे बिठा दिया.अग्निदेव की कृपा से थोड़ी देर बाद मेरी उंगलियां पहले की तरह काम करने लगीं.भीड़ बढ़ती जा रही थी तो हम लोग जल्दी-जल्दी मेला घूमे.मैंने गुब्बारा भी खरीदा, एक बांसुरी लिया और जलेबी भी खाया, वो भी देसी घी वाली.वैसे भी मैं गंगा जी नहाने के लिए थोड़े ही आया था. वो तो बहाना था.ये अलग बात है कि जोश में नहा भी लिया.असली मामला मेले और गर्म-गर्म जिलेबियों का था.अम्मा ने घर के लिए केला लिया, दीदी के लिए लम्बी वाली चोटी खरीदी और प्रसाद के रूप में रामदाना, बिंदी और सिंदूर की डिबिया भी खरीदी,लड़कियों ने तो आधा मेला खाया और आधा मेला खरीद लिया. चाट, गोलगप्पे, बुनिया, जलेबी, केला, पेठा, गट्टा, बिंदी, चूड़ी, दर्पण,कंधी, नकली चांदी के पायल,नकली सोने के कंगन.ये तो अच्छा था कि किसी को 10 रुपये से अधिक घर से नहीं मिला था. वरना पूरा मेला ही घर उठा ले जाती. कल्लू भी साथ था, अब तक पूरी तरह उजाला हो गया था.थोड़ा-थोड़ा कोहरा भी पड़ना शुरु हो गया था. अब मेला अपनी जवानी पर आ गया था. तिल डालने की जगह नहीं थी.एक–एक कदम बढ़ाना मुश्किल होने लगा था.अब हर हर गंगे की जगह शोर, बांसुरी, सीटी और मदारी के डमरू की आवाज़ सुनाई दे रही थी. चाची और बाकी महिलाएं लड़कियों को लेकर चिंतित थी.चाची बीच-बीच में बोलती-चलो , अब इधर-उधर मत देखो.सीधा मेले से बाहर निकलो.लडकियाँ थी कि सुनती ही नहीं थीं. जैसे किसी बिसाते या चुड़िहारिन की दुकान देखती रुक जाती,और मोल- भाव करने लगती. ये हरी वाली चूड़ियाँ कैसी हैं ... ये कंगन क्या भाव?ये काली वाली चोटी ... मोती वाला हार... और भाव सुनकर मुँह बना देती... इतना मंहगा... बिसाता भी लाचारी दिखाते हुए बोलता ...मंहगाई का जमाना है बिट्टी... ५ रूपये में क्या मिलेगा ?... और बिट्टी मजे लेकर आगे बढ़ जाती. आखिरकार मेला घूमते-घूमते पूरी टीम किसी तरह बाहर निकली. इस बीच मेरी एक उंगली अम्मा के कब्जे में रही.जब हम लोग मुख्य रास्ते पर आए.तो हमारा एक साथी हमारे साथ नहीं था.हमारा कल्लू ! मैं परेशान हो गया.फिर मैंने इधर-उधर देखा,परंतु कल्लू कहीं नहीं दिखा.मैं उसे ढूंढना चाहता था,परंतु अम्मा भीड़ को देखते हुए बोली-चलो,कल्लू सूंघते–सूंघते घर आ जाएगा.कुत्ते रास्ता नहीं भूलते.फिर भी घर आते समय रास्ते भर मेरा ध्यान कल्लू पर ही था.बाकी लड़कियां और औरतें मेले और सामान की बातें करती रहीं.उन्हें कल्लू से क्या मतलब? उन्हें तो इस बात की चिंता थी कि फला सामान पैसे कम पड़ने या खत्म होने से नहीं खरीद पाई.पर अगली बार जरूर खरीदेंगी.अम्मा भी कल्लू को लेकर विचलित थी.हम जैसे ही घर पहुंचे,कल्लू को साथ में न देखकर बाबू जी बोले- कल्लू कहां है?अम्मा ने कहा- मेले में खो गया.बाऊजी बिगड़ गए.साथ लेकर क्यों गई?अम्मा चुप रही.मैंने बोलने वाले अंदाज़ में हाथ उठाया ही था कि बाऊ जी डाँटते हुए बोले-तुम चुप ही रहना और मैं चुप ही रह गया.अम्मा बिना कुछ उत्तर दिए, सिर झुकाए, आखों की पलकों में कुछ बूंदे दबाकर, पल्लू पकड़े,बरामदे से होते हुए अंदर घर में चली गयी.  बात ऐसी थी कि बाबूजी ही कल्लू को खलिहान से लाए थे.कल्लू बाऊजी को बहुत मानता था.खेत-खलिहान जहां भी जाते, कल्लू साए की तरह उनके साथ रहता. बाऊजी व मेरे हाथ के अलावा,वह किसी के हाथ से खाना नहीं खाता था.उसे रोज सुबह-शाम दूध-रोटी एक स्टील की तस्तरी में दी जाती,मेरी तरह उसे भी भात पसंद था इसलिए किसी-किसी दिन दूध भात भी खा लेता था.पर बाऊ जी उसे अक्सर दूध रोटी ही परोसते थे,परंतु आज वह दूध रोटी खाने के लिए नहीं था. बाऊजी बेहद उदास हो गए.कल्लू को वह बेटे की तरह प्यार करते थे और अगर किसी का बेटा गुम हो जाए,तो उस पर क्या गुजरेगी?क्या मुझ से ज्यादा वह कल्लू को प्यार करते थे?एकाध बार मेरे मन में ऐसा ख्याल कल्लू के सामने मार खाते हुए आया था.मुझे तो अक्सर दूसरे-तीसरे दिन बाऊजी मौका पाते ही पीट देते थे,परंतु कल्लू को कभी नहीं.कभी–कभी मुझे कल्लू से ईर्ष्या होने लगती.बाऊजी उसे पुचकारते, तश्तरी में दूध–रोटी लेकर बैठते.वह जब तक पूरा खाना खा नहीं लेता.तब तक वहीं बैठे रहते.उसकी पीठ पर हाथ फेरते,माथे पर हाथ से सहलाते और वह पूंछ हिलाकर,आखें मलकाकर कृतज्ञता व प्यार का इजहार करता.कल्लू का हमारे घर से पुश्तैनी रिश्ता था.उसकी नानी भी हमारे घर पर रहती थी.जिस साल उसने कल्लू की मां को जन्म दिया.उसी साल उसकी अगले जाड़े में मृत्यु हो गई.कल्लू की माँ तीन भाई-बहन थे.बड़े होने पर दो भाई किधर और चले गए,पर कल्लू की मां हमारे घर और आस पड़ोस में ही रह गई.सुबह-दोपहर-रात खाने के वक्त अक्सर दालान के चौखट पर आकर खड़ी हो जाती और रसोई की तरफ आशा भरी नजरों से देखती रहती.जब तक उसे कौर [भोजन] नहीं मिल जाता,तब तक वह अपने स्थान से हटती नहीं थी. शांत स्वाभाव की थी.ज्यादा भौंकती भी नहीं थी.घने काले बालों वाली थी.पहले साल जब उसने में गर्भ धारण किया तो खलिहान में रखे पुवाल के गांज में दो बच्चों को जन्म दिया.दोनों नर थे.एक चीतू,दूसरा कल्लू.
चीतू देखने में काफी सुन्दर था.सो पिता जी उसकी आंख खुलते ही उठा लाए.बोले – इसे पालेंगे.उसे कटोरे में दूध देते पर वह दूध नहीं पीता था.उसे एक पतली रस्सी में बांध दिया गया था.वह चिल्लाता बहुत था.दिन भर रह-रह कर चिल्लाता.उसके चिल्लाने से बाऊजी से अधिक अम्मा परेशान थी.अम्मा बाऊजी से बोली –उसे छोड़ क्यों नहीं देते?दिन भर चिल्लाता रहता है.अच्छा नहीं लगता.दूसरा नहीं मिलेगा क्या? बाऊजी बोले- मिलेगा क्यों नहीं?पर इतना सुंदर नहीं मिलेगा.चीतू का शरीर भूरा,सफ़ेद व काला था अर्थात चितकबरा.हालाँकि वह देखने में बहुत खूबसूरत था. परन्तु उसका चिल्लाना किसी को पसंद न था.एक दिन अम्मा ने बाऊजी के खेत जाने पर उसे छोड़ दिया,और वह भाग गया.पिताजी जब खेत से घर लौटे तो उनके हाथ में एक दूसरा पिल्ला था,काले रंग का.पिल्ले को देखते ही मैं दौड़ पड़ा.बाऊजी के हाथ से मैंने पिल्ले को छीन लिया. उसे गोद में ले कर सहलाने लगा.बाऊजी ने कंधे से कुदाल उतारकर जमीन पर रख दी.बाऊजी बोले- अब चीतू को छोड़ देंगे. तुम्हारी अम्मा हमेशा बोलती रहती हैं.छोड़ क्यों नहीं देते?परंतु आज चीतू तो चिल्ला नहीं रहा है.बाऊजी कहते हुए मड़ई में गए.तो चीतू नदारत था.तभी मोनू बोल पड़ा- बाऊ-बाऊ चीतू को अम्मा ने छोड़ दिया.जब आप खेत गए थे.बाऊजी बोले- चलो,उनको शांति मिल गई.आखिर उसे छोड़ ही दिया.पूरी तरह से वह चीतू से ऊब गई थीं.तभी अम्मा घर से निकली.मेरे हाथ में पिल्लू को देख कर भड़क गई.यह कौन लाया?एक से जान छूटी कि दूसरा लेकर आ गए.तुम बाप-बेटों पर कुत्ता पालने की सनक सवार हो गई है.जहां से लाया है,वहीं छोड़कर आ!जल्दी आँख के सामने से हटा! नहीं तो अभी डंडा लेकर काट डालूंगी.एक था दिन भर चिल्ला-चिल्ला कर जान खा जाता था.किसी तरह उससे आज पिंड छूटा तो अब यह दूसरा आ गया.जान खाने के लिए.चुपचाप खड़ा क्यों है? जल्दी से इसे छोड़कर आ.तभी बाबूजी मड़ई से बाहर निकले और बोले इतना गला फाड़-फाड़कर क्यों चिल्ला रही हो? यह पिल्ला मैं लाया हूं.अम्मा बोली- पिल्ला नहीं रहेगा और फिर मेरी तरफ घूर कर देखने लगी.मैंने डर के मारे पिल्ले को जमीन पर छोड़ दिया तो, बाऊजी ने उठा लिया. अम्मा का पारा सातवें आसमान पर था. यह देख कर अम्मा बोली तुम बाप–पूत सारा काम-धाम छोड़कर कुत्ता पालो और कुछ मत करो.गुस्से में इतना कह कर घर में चली गईं. बाऊ जी कुछ ना बोले. चुप-चाप पिल्ले को पतली रस्सी से बांध दिए.थोड़ी देर कूं-कूं करने के बाद कल्लू चुप हो गया.धीरे-धीरे एक सप्ताह गुजर गया.बाऊजी उसे कटोरी में दूध रखकर पिलाते.कभी-कभी बाऊजी के न रहने पर मैं भी दूध पिलाता अथवा रोटी के छोटे-छोटे टुकडे करके खिलाता. धीरे-धीरे एक महीना गुजर गया.सब लोग कल्लू को प्यार करने लगे.अब उसको सिर्फ शाम को रस्सी बांधी जाती.दिन भर घर में से बाहर मड़ई,चरनि [जहाँ पशु खाते हैं] इधर-उधर दौड़ता रहता.मोनू, सोनाली,मैं और बाऊजी सब लोग उसके साथ खेलते.परंतु अम्मा की और कल्लू की एक निश्चित दूरी बनी रहती.परंतु पहले जैसा विद्रोह,द्वेष अब पिल्लू के खिलाफ़ उनके मन में न था.मेरे व बाऊजी के सिवा वह दूसरे के हाथ से खाना भी नहीं खाता था. मैं और बाबूजी अक्सर एक साथ खाना खाते थे.एक दिन मैं और बाऊ जी खाना खा रहे थे.तभी चुपके से पिल्लू भी बगल में आकर चुपचाप बैठ गया.किसी को पता ही नहीं चला.जब हम खाना खाकर बाहर की तरफ जाने लगे, तो पिल्लू को देखकर चौंक गए.अम्मा की भी नजर पिल्लू पर पड़ गई.वह तुरन्त बोल पड़ी –अब रसोई में भी आने लगा!कितना ढींठ हो गया है.सब भ्रष्टकर डाला. हे भगवान ! सिर पर हाथ रख लिया.अम्मा के इस जोरदार खीझ भरे संवाद पर किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी.हम सीधा चुपचाप अपनी खटिया पर आकर रूके. अब तो रोज रात को खाने के समय पिल्लू रसोई घर के पास आकर बैठ जाता. एक दिन अम्मा ने गुस्सा होकर 2-3 डंडा पिल्लू को लगा दिया.वह दर्द के मारे चिल्लाने लगा.परंतु वहाँ से नहीं हिला.अम्मा उसे भगाना चाहती थी.बात ऐसी थी कि अम्मा बाहर चूल्हे में लगाने के लिए लकड़ियां लेने जा रही थी.चूल्हे के पास की लकड़ी खत्म हो गई थी. उन्होंने सोचा अगर मैं दुआरे जाऊंगी तो पिल्लू कहीं दूध व खाना जूठा न कर दे. अम्मा पिल्लू को पीटकर भुनभुनाते हुए बाहर चली गईं.इतने में भूरी रसोई खाली देख दूध की तरफ आगे बढ़ी.पिल्लू देख रहा था.भूरी ज्यों ही दूध के नजदीक पहुंची.पिल्लू झपट पड़ा.पिल्लू भूरी दोनों लगभग बराबर साइज के थे. भूरी पिल्लू को बच्चा समझ कर डराने के इरादे से गुर्राई, पर डरने के बजाय पिल्लू भी गुर्राया.भूरी ने देखा कि गुर्राने से दाल नहीं गलेगी तो उसने अचानक पिल्लू पर हमला कर दिया.पिल्लू को एक-दो जोरदार पंजे मार दिए. पिल्लू के मुंह के पास से खून बह निकला.भूरी पुरानी खिलाड़ी थी,पर पिल्लू भी नया खून था.जानपर खेल गया.पूरी ताकत से भूरी पर छलांग लगाई. पिल्लू के नवांकुर दांतों के हिस्से में भूरी के सिर्फ कान आये और पिल्लू ने भूरी के कान का काम तमाम कर दिया.भूरी के झटके से पिल्लू दूर जा गिरा.इससे पहले कि भूरी उस पर फिर से प्रहार करती पुनः फुर्ती से पिल्लू खड़ा हो गया.भूरी फिर गुर्राई... लहुलुहान पिल्लू भी गुर्राया. दोनों पैंतरे बदलने लगे. पिल्लू चौकन्ना हो अपनी निगाहें भूरी पर गड़ाए हुए था, कि तभी अम्मा लकड़ी लेकर आ गई.अम्मा को देखते ही भूरी दीवार पर चढ़कर खिड़की के रास्ते बाहर कूद कर भाग गई.भदेली का ढक्कन खुला था.ढक्कन भूरी के धक्के से बगल में गिर पड़ा था.अम्मा को माजरा समझते देर न लगी.बाकी सब सामान ज्यों का त्यों था. अम्मा का ध्यान पिल्लू पर गया.पिल्लू दरवाजे के पास जाकर सावधान की स्थिति में खड़ा होकर अम्मा की तरफ देखने लगा.वह हाँफ रहा था. अम्मा का हृदय पूरी तरह बदल गया था.
  पिल्लू के मुंह और कान से बहता खून देखकर अम्मा ने खाना बनाना छोड़कर हल्दी-प्याज पीसकर, पिल्लू के घाव पर लगा कर कपड़ा बांधा. इतने में बाऊजी बाजार से आ गए. पिल्लू की पट्टी देखते ही बोल पड़े-अरे इसे क्या हुआ?अम्मा ने पूरी कहानी बताई.बाऊजी बोले- चलो अच्छा हुआ,इसने अपनी वफादारी का सबूत तुम्हारे सामने सिद्ध कर दिया.नहीं तो तुम यूं ही मुंह बनाए खार खाए रहती.अब तो वह एकदम बिंदास घर में रहता.क्या मजाल किसी की, कि उसके रहते कोई दूसरा कुत्ता अथवा बिल्ली घर में घुसे,अथवा घर के आस-पास मडराये.शाम 7:00 बजे के बाद आदमी भी आने से पहले दो बार सोचता.समय अपनी गति से बढ़ रहा था.इस बीच वह पिल्लू से कल्लू कब बन गया? किसी को पता ही नहीं चला.6 महीने में ही वह गबरू जवान हो गया.कल्लू बाऊ जी के साथ हमेशा रहता.जहां जाते साथ-साथ जाता.फसल की कटाई के सीजन में दिनभर बाबूजी के साथ खेत में ही रहता.कभी-कभी मेरे साथ गाय चराने भी जाता. जब कभी गाय दूर चली जाती और मुझे दौड़ाने लगती,तो मैं कल्लू को भेजता.वह दौड़ कर जाता और गाय के आगे भौकता.फिर उसे पीछे से काटने दौड़ता.गाय डर कर वापस आ जाती.परंतु उसने कभी गाय अथवा किसी को काटा नहीं.उसका कल्लू नाम इसलिए पड़ गया क्योंकि वह एकदम काले रंग का था.यह चीतू का भाई था.यह तो उसकी बीते दिनों की कहानी थी.अब वर्तमान की बात करते हैं.   मेला के बाद की बात.सब लोग खाना खा लिए.सिर्फ मैं अम्मा और बाऊजी बचे थे.बाऊजी कल्लू का इंतजार कर रहे थे.रात के 10:30 बज गए थे.ठंडक तेज हो गई थी.सिर्फ झींगुरों की आवाज वातावरण में गूंज रही थी.चारों तरफ पसरे सन्नाटे को झींगुर अपनी पूरी ताकत से भंग करने में जुटे थे.गांव में लोग अक्सर जाड़े के दिनों में नौ-दस बजे तक सो जाते हैं.कल्लू की प्रतीक्षा में आग के पास हम तीन मूर्ति बैठे थे.आग को भी नींद आने लगी थी.उसकी लालिमा राख में तेजी से बदल रही थी.बाऊजी उसके कलेजे में जबरदस्ती लकड़ी घुसेड़कर गर्मी ला रहे थे.तभी अम्मा सन्नाटे को तोड़ती हुई बोली- कब तक इंतजार करोगे?चलो खा लो.जाएगा कहां?आ जाएगा.मुझे भी झपकी आ रही थी.बाऊजी बिना कुछ बोले खड़े हुए और रसोई की तरफ चल दिए. साथ में मैं और अम्मा भी पीछे-पीछे गए.बाबूजी रसोई में गए.पीढ़े पर बैठे,सामने आयी थाली को देखे और भोजन को प्रणाम किये .जल आचमन किये और बिना खाए उठ गए.अम्मा लालटेन के पीले मद्धिम उजाले में पिता जी का चेहरा निहारती रही,पर कुछ बोली नहीं.बाऊजी मडई के तख्ते पर जाकर रजाई में आकर घुस गए,खाना खाकर मैं भी बाऊजी के पास आकर सो गया.उन दिनों मैं बाऊजी के पास ही सोता था.उसका कारण घर में खटिया और रजाई दोनों की कमी होना था. रात को मुझे पेशाब लगी तो, मेरी नींद टूटी.मैं रजाई से बाहर निकला,तो देखा- अम्मा-बाऊजी सरसो का तेल गर्म करके कल्लू की मालिश कर रहे थे.सामने आग जल रही थी.ताखे में डेबरी [दीपक] जल रही थी.मैं देखकर भौचक्का रह गया.उस समय रात को 1:30 बज रहे थे. मैं डेबरी के पास अपनी चुकचुकहिया घड़ी ले जाकर बड़े गौर से देखा.कल्लू बोरे पर बैठा था.अम्मा पीठ पर तो बाऊजी माथे व पैरों में तेल मालिश कर रहे थे.मैंने आंख मलते हुए पूछा- कल्लू को क्या हुआ बाऊ?बाऊ जी बोले- ठण्ड लग गयी है.तुम सो जाओ और मैं चुपचाप वापस अपनी रजाई में घुस गया.बाऊजी कभी मेरे सिर की मालिश को कौन कहे,तेल तक मेरे सर पर कभी नहीं रखे.
बात ऐसी थी कि कल्लू रात को जब 1:00 बजे घर पर आया तो वह हांफ रहा था. रास्ते में उसे बाहरी कुत्तों ने काटा था,तथा वह नदी पार करके आया था.जिससे वह भीगा हुआ था. सरयू जी जाते समय हमारे घर से 2 किलोमीटर दूरी पर एक छोटी-सी नदी पड़ती है. उसका नाम पिकिया नदी है.इसलिए अम्मा-बाऊजी उसकी मालिश कर रहे थे,ताकि वह ठंडक से बच जाए. मुझे कल्लू पर एक तरफ तरस आ रहा था,तो दूसरी तरफ अम्मा को कल्लू की सेवा करते देख मन को एक अलग तरह का आनंद अथवा ममता अपनत्व की अनुभूति हो रही थी.जिसे मैं शब्दों में नहीं ढाल सकता.पूरे गांव में कल्लू की चर्चा थी.वह किसी के घर पर नहीं जाता था. न ही किसी का दिया कौरा अथवा जूठन खाता था.वह मांस अथवा हड्डियां भी दूसरे कुत्तों की तरह नहीं चबाता था.जैसे वह हमारे पारिवारिक संस्कारों को बखूबी समझता हो.हमारा पूरा परिवार शुद्ध शाकाहारी था. वह भी पक्का ब्राम्हण था.शायद इसीलिए बाऊजी उसे और भी प्यार करते थे.
  कल्लू से मेरे एकाध पड़ोसियों को ईर्ष्या भी होती थी.शायद उसी के चलते गर्मी के शुरुआती दिनों में एक दिन किसी ने दोपहर के वक्त कल्लू के गले में हँसिया मार दी.जिससे धान व चारा आदि की कटाई होती है.हंसिया गले के आर-पार हो गई थी. वह उसके जिंदगी का अंतिम दिन था. वह पास के टीले पर गिरा पड़ा था.शायद घर तक आने की कोशिश कर रहा था. तभी किसी ने आकर आवाज दी कि कल्लू को किसी ने हँसिया मार दिया है. बाऊजी उस समय खेत में थे.गेंहू की कटाई हो रही थी.मेरी दोपहर की छुट्टी हुई थी.स्कूल से घर पर खाना खाने आया था.हमारा प्राइमरी स्कूल हमारे गाँव की बाग़ में ही था.इसलिए हम दोपहर की छुट्टी में घर खाना खाने आ जाते.मैं खाना छोड़कर दौड़ता हुआ टीले पर गया.प्रथम दृष्टि में कल्लू को देखकर मैं हतप्रद था.उसके गले में हँसिया फँसा हुआ था.उसके गले के चारो तरफ खून पसरा हुआ था.डर के साथ मुझे रुलाई भी आ गयी.कल्लू ने मुझे देख लिया.उसने पलकें झपकाई. मैंने देखा उसकी आखों से आँसू बह रहे थे.गर्दन उठाने का उसने असफल प्रयास किया.मैं हिम्मत कर आगे बढ़ा. उसके गले से हँसिया निकालने का विचार आया. पर पूरा हँसिया रक्त रंजित था. हंसियें की मुठिया भी.मैंने अपने अब तक के जीवन काल में ऐसी जघन्य हत्या और विचलित करने वाला दृश्य पहली बार देखा था और पहली बार मनुष्य की कुण्ठा और प्रतिशोध का निकृष्टतम स्तर देखा था.मैं हिम्मत कर उसके करीब जाकर धीरे से बैठ गया.आस-पास भीड़ जमा हो गयी थी.मुझे अपने पास पाकर उसने धीरे से अपना सिर हिलाया और अपना आगे का पंजा जरा सा बढ़ाया.एक बार फिर पलकें झपकाईं जैसे वह यह इशारा कर रहा हो कि अब मेरा अंतिम समय आ गया है,और मैं जा रहा हूं.मैंने उसके खून और मिट्टी से सने पंजे को अपने हाथों में रख लिया.मैंने उसके माथे को छूने की चेष्टा स्वरुप धीरे से हाथ बढ़ाया ही था कि इतने में उसकी गर्दन एक तरफ हल्की सी झुक गई.उसके प्राण पखेरु उड़ गए.आसपास के खड़े सभी लोग भुनभुनाने लगे. किसने मारा?क्यों मारा?आख़िर कुत्ते से क्या दुश्मनी?भीड़ में से कोई बोला, कुछ नहीं कर पाया होगा बेचारा, तो कुत्ते को ही मार कर अपने दिल को कुछ ढाढस दिया होगा.मैं फूट-फूट कर रोने लगा.कई लोग जो मेरी तरह दिल के नरम थे रो पड़े.बाऊजी जब खेत से आए तो, उन्हें पता चला कि किसी ने कल्लू को हंसिए से मारा तो,बाऊजी एक बार तो गुस्से से लाल-पीले हो गए.बाद में अम्मा व कई बड़े-बुजुर्गों ने समझाया,तब कहीं जाकर बाऊजी शांत हुए.जब बाऊ जी कल्लू को सफेद चादर में लपेट रहे थे. तो उनकी आखें भी झर रही थी.कल्लू को बाकायदा दफनाया गया. उसका हमारा करीब 6 वर्षों का आत्मीय साथ रहा .भरी जवानी में उसे हमसे छीन लिया गया. एक कुत्ते की औसत उम्र 12 से 15 की होती है. उसकी मौत ने पिता जी को अन्दर तक हिला दिया.उसके बाद कभी कोई कुत्ता हमारे घर पर नहीं पाया गया.कल्लू बेहद गंभीर किस्म का था.देखने में ऊंचाई भी अच्छी खासी थी. था तो देसी, पर लगता था एल्शेसियन के जैसा.ऐसी ही उनके जैसी लंबी पूछ,शरीर पर एकदम काले बड़े-बड़े बाल.लंबे-लंबे कान.एक बार अगर वह सामने खड़ा हो जाए तो अच्छे-अच्छों के रोंगटे खड़े हो जाएं.कितने जन तो उसके डर के मारे अकेले मेरे घर पर नहीं आते थे.आज भी उसकी याद से आखें और हृदय दोनों नम हो जाता है. परंतु कुछ भी हो,एक कहावत है कि इंसान से भी ज्यादा वफादार कुत्ते होते हैं,और कल्लू वफादार था और रहेगा.वह हमारी सम्वेदनाओं का सच्चा हकदार था. वैसे एक प्रसिद्ध कथन है – मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त कुत्ता. जब भी किसी घरेलू अथवा पालतू ईमानदार या वफादार कुत्ते की बात होती है.तब-तब कल्लू की याद आती है और हमेशा याद आती रहेगी. इति शुभम्

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