आज - कल दर्पण उपेक्षित से पड़े हैं
और वे इक धूल में हँसते खड़े हैं
खुरदुरे चेहरों को कन्धों
पर उठाकर
ध्रुव सरीखे आचरण पर ज्यों
खड़े हैं
विष भरे कितने ही सोने के घड़े हैं
कितने के गहनों में हीरे तक
जड़े हैं
किंतु जब भी आचरण की बात
आयी
दृष्टि में वे हर दिशा से ही सड़े हैं
मान की ख़ातिर कहाँ कितने
लड़ें हैं
कहने को अपने लिए सब ही बड़े
हैं
जब समय आकर परीक्षा माँगता है
सब बड़े
सर रेत में जैसे गड़े हैं
पवन तिवारी