मर रहे हैं ज़िन्दगी को रख हथेली
मृत्यु को कहता सरल कैसी पहेली
पर्वतों सा धैर्य पर पत्थर
सा लगता
झोपड़ों में रह रहा कहता हवेली
लगता बड़बोला कभी तो
दार्शनिक है
गीत खुशियों के हूँ सुनता
गा रहा है
दर्द है, दीवार, दरवाजा
खड़ा है
लाश सी है ज़िन्दगी फिर भी
अड़ा है
कहता अब भी साँस मेरी चल
रही है
आस की लाठी लिए अब भी पड़ा है
जब कोई उससे अँधेरी
बात कहता
हँस के कहता सूर्य का रथ आ
रहा है
लग रहा है पेड़ टूटी
पत्तियों सा
बात करता खिड़कियों से
साथियों सा
पूछो तो ऐसे बताता भीड़
में है
मुस्कराता खंडहर में
वादियों सा
है बड़ा विक्षिप्त या अचरज
कहूँ मैं
जो भी आये उसपे जैसे छा रहा है
कुछ तो कहते हो चुका बर्बाद है वो
वो सदा हँस के कहे
आबाद है वो
हो रही चुकने की उसके घोषणा
जब
लेटे - लेटे कह रहा नाबाद है वो
आने वाला कल उसे अद्भुत कहेगा
जैसा भी हो काल उसको भा रहा है
पवन तिवारी
२७/०९/२०२३
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