हूँ
 गृहस्त  पर  वैरागी
 सा  भटक  रहा
हूँ 
अपनों
 को  ही  गैरों
सा  मैं  खटक रहा हूँ 
पैर
 फँसाते, बाँह  पकड़ने  की  कोशिश है 
पर
निष्ठा है ध्येय का पथ सा झटक रहा हूँ 
प्रति
 पग - पग  पर  छल  प्रपंच  बैठे
 हैं 
हम   शब्दों   का   अस्त्र   लिए   ऐंठे   हैं
कुछ
  हमको   धकियाते 
 ताने  मार रहे 
हम  कितनों  के   हिय
 में  गहरे  पैठे
 हैं 
द्रव्य
के गण हमको रह रह कर घेर रहे
शब्दों
 से  जब  हुआ  सामना  ढेर  रहे
अवसर
पा  माया  से  मारा
 करते  हैं  
उनकी
 चाल पे हम भी पानी फेर रहे 
शब्द
ब्रह्म  है  मृत्यु  नहीं
उसकी होगी
अंत
है उसका निश्चित जो होगा भोगी 
जो
वाचा की शरण गया वो अमर हुआ 
अद्भुत
शब्द  जोग जाने है बस जोगी 
आयेगा
 कुबेर  जोगी   के  पादों  में
अर्चन
स्वर  गूंजेगा  अनहद नादों में 
शब्द
सिद्धि की देवी जिस दिन प्रगटेगी
सावन
 द्वारे  खड़ा  रहेगा
 भादों में
पवन
तिवारी 
०३/०४/२०२२
   
 
 
 
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