प्रेम
का जो पुस्तकालय था पुराना
उस
विषय सूची से बाहर हो गया हूँ
बारिशों
को आने दो सब ज्ञात होगा
उगेगा
अनुराग सा जो बो गया हूँ
भीड़
की दुनिया में मुझको अब न खोजो
मैं
कहाँ बाहर हूँ निज में खो गया हूँ
है रहा संवाद में विश्वास
मेरा
इन
विवादों पे मैं समझो सो गया हूँ
ऐसे – ऐसे मौसमों से
गुज़रा हूँ
हँसते-हँसते
औ अचानक रो गया हूँ
वृहद्
उस दुःख काल का यूँ नाम ना लो
त्रास
के उन आँसुओं को धो गया हूँ
ये
मेरी कटि
जो झुकी सी देखते हो
अपनी
क्षमता से अधिक मैं ढो गया हूँ
यूँ
नहीं जाता किसी के द्वार लेकिन
आर्द्र
स्वर ने है पुकारा तो
गया हूँ
पवन
तिवारी
१४/०४/२०२२
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