आवारों
से शब्द भटकते हैं मेरे
बहुतों
को सो वाक्य खटकते हैं मेरे
मिलकर
कविता या कि कहानी बन जाते
पढ़ते
हैं पर नाम अटकते हैं मेरे
जब
तक पता नहीं है
मेरी ये रचना
तब तक
उसके संग में झूम झूम नयना
जैसे
पता चले कि रचना मेरी है
फिर
पसंद होकर भी उससे बचना है
जो
हैं ऐसे वे भी लिखने वाले
हैं
साहित्यिक
मज़मों में दिखने वाले हैं
नहीं
बिकाऊ कहते फिरते
रहते हैं
भाव
मिले तो सारे बिकने वाले हैं
मेरे
जैसे
थोड़े आवारा फक्कड़
होकर
भी बर्बाद नहीं जाती अक्कड़
अपनी
शर्तों पर जीने
मरने वाले
फँसते
नहीं भले आयें कितने मक्कड़
पवन
तिवारी
२२/१२/२०२१
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