है
बना काल यह कितनों का काल है
हाल
कितने ही
लोगों का बेहाल है
दुःख
भी आते हैं आकर चले जाते हैं
ये बड़ा ढीठ है
साल दर साल है
शब्द
कम पड़ रहे कितने दर उजड़े हैं
कितने
मजदूरों के कितने घर उजड़े हैं
रुग्णता
से तो कम भय से ज्यादा मरे
जग
के हर कोने में नारी नर उजड़े हैं
आँसू
कितने गिरे इसकी गिनती नहीं
जो
हैं सक्षम वे सुनते हैं विनती नहीं
थोड़े
नैतिक,मनुजता जो रखते सभी
ज़िंदगी बेतहाशा
यूँ छिनती नहीं
रोम
की बाँसुरी याद आती
रही
बढ़ते
ही शव रहे
साँस जाती रही
कुछ
को तो अग्नि कुछ को जमी ना मिली
प्रकृति
औकात हमको बताती रही
अब
से भी संभले यदि तो सम्भल जायेंगे
हाथ
में हाथ हो तो निकल जायेंगे
अपने
परिवेश को अपनी सरकार
स्वच्छ
रखेंगे फिर से निखर जायेंगे
पवन
तिवारी
१७/०८/२०२१
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