यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

मंगलवार, 7 जून 2016

एक महान स्वच्छंद व्यक्तित्व - राहुल सांकृत्यायन


 राहुल संकृत्यायन का व्यक्तित्व विरला है. विराट एवं विस्मयकारी व्यक्तित्व के मालिक राहुल संकृत्यायन जैसा मनीषी कई सदियों में एकाध पैदा होता है.
 जानकर आश्चर्य होता है कि, एक व्यक्ति जिसने बचपन में ही घर-बार त्याग कर घुमक्कड़ी जीवन अपना लिया हो. जिसको अभावों व संघर्षों के सिवा कुछ विशेष सुविधा न मिली हो , उसने 36 भाषाओं का ज्ञान अर्जित कर लिया. 150 से अधिक तथ्यपरक पुस्तकें लिखी .कई देशों में अध्यापन किया. अनेक देशों की यात्रा की . इतिहास, धर्म,दर्शन ,राजनीति, जीवनी, भाषा कोष, यात्रा वृतांत, उपन्यास, कहानी जैसे तमाम विषयों पर अर्थपूर्ण लेखन के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन , किसान आंदोलन के साथ ही भाषाई विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. अद्भुत और चमत्कृत करने वाला व्यक्तित्व है राहुल जी का.
 राहुल जी का जन्म 9 अप्रैल 1893 ईस्वी में आजमगढ़ जिले के कनैला में हुआ. इनके पिता गोवर्धन पांडे साधारण किसान थे. माता कुलवंती देवी का बचपन में ही निधन हो गया था. जिसके कारण राहुल जी का पालन पोषण ननिहाल पन्दहा में नाना रामशरण पाठक के यहां हुआ . इनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई. 11 वर्ष की अल्प आयु में ही राहुल जी का विवाह "संतोषी" जी के साथ कर दिया गया . जो राहुल जी को रास नहीं आया और किशोरावस्था में ही घर त्याग दिया . मदरसे में पढ़ाई के दौरान ही उनके पाठ्यक्रम में एक शेर था .
सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां
 जिंदगानी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां
 इस शेर ने ही सर्वप्रथम राहुल जी के मन में घुमक्कड़ी बनने के लिए प्रेरित किया . उनके जीवन की पहली यात्रा बनारस से प्रारंभ होती है और फिर कोलकाता, बिहार होते हुए उत्तराखंड और उसके बाद फिर पूरी दुनियामें पंख पसार लेती है . उनके जीवन की यात्रा कदम-कदम पर हमें चकित करती है . उनके परिवार का नाम केदारनाथ पांडे था और जब वैष्णव बने तो नया नाम मिला स्वामी राम उदार दास और उसके बाद श्रीलंका यात्रा और अध्यापन के दौरान बौद्ध धर्म से प्रभावित हो बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो वह नया नामकरण हुआ "राहुल" .सांकृत्यायन गोत्र में पैदा होने के कारन राहुल के आगे सां कृत्यायन लगाया और इस प्रकार केदारनाथ और राम अवतार दास के नाम मिला "राहुल संकृत्यायन" . राहुल नाम भी इसलिए धारण किया क्योंकि , राहुल गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम था और राहुल जी स्वयं को गौतमबुद्ध का मानस पुत्र मानते थे . उसके बाद रूस यात्रा के दौरान वह मार्क्सवाद से प्रभावित हुए और कम्युनिस्ट हो गए . 1915 से 1922 तक वे आर्य समाज के राष्ट्रवाद व समाज सेवा से प्रभावित होकर स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में आजादी के आंदोलन में कूद पड़े और पहली बार जेल गए . राहुल जी स्वामी सहजानन्द के नेतृत्व में ही बिहार प्रांतीय किसान सभा से जुड़े.
1922 से 1927 तक का समय  राहुल जी के "जीवन दर्शन" और चिंतन के विकास की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण रहा . इसी काल में उन्होंने जीवन विश्व दर्शन और राजनीति का गहराई से अध्ययन किया. 1928 में संस्कृत अध्यापक के रूप में राहुल जी श्रीलंका गए . वहां विद्यालंकार के राजकीय महाविद्यालय में त्रिपटक का अध्ययन किया और साथ ही सिंहली भाषा भी सीखी . त्रिपटक से प्रभावित होकर ही उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने का निर्णय लिया और श्रीलंका में ही बौद्ध के रूप में दीक्षित हो राहुल सांकृत्यायन बने . इसी बीच राहुल जीनेंबौद्ध धर्म को गहराई जाननेके लिए तिब्बत यात्रा करने की ठानी .उस समय तिब्बत यात्रा करना आसान नहीं था . ब्रिटिश हुकूमत को यदि  पता चल जाता तो वह राहुल जी को कदापि तिब्बत न जाने देती और तिब्बत सरकार भी उन दिनों भारतीयों को तिब्बत नहीं  आने देती  थी इसलिए उन्होंने चुपके से दुर्गम पहाड़ी मार्ग से तिब्बत यात्रा करने की ठानी .
जिसमें राहुल जी सफल रहे. राहुल जी ने चार बार तिब्बत की यात्रा की .पहली बार 1929 -30 उसके बाद 1934 फिर 1936 और उसके बाद 1938 में तिब्बत यात्रा  की .इस यात्रा से भारत व विश्व साहित्य को राहुल जी ने अमूल्य निधि  प्रादान की . राहुल जी का अदम्य साहस देखिए कि उन्होंने तिब्बत से 22 खच्चरों पर लादकर साहित्य , 200 पेंटिंग व अन्य शोधपरक सामग्री भारत ले आए. भारत में अनुपलब्ध भारतीय न्याय दर्शन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति "प्रमाण वर्तिका" जिसे छठी शताब्दी में धर्मकीर्ति ने लिखी थी ,उसे खोज कर भारत लाए. साथ ही "वज्रडाक तंत्र" एवं "कंजूर" ले आए . जो संस्कृत में ताड़ के पत्तों पर हस्तलिखित थी .बौद्ध धर्म व दर्शन से जुड़े तिब्बती भाषा में लिखेकरीब 156 ग्रंथों से  40000 श्लोकों को पुस्तकों में उतारा .जिन पुस्तकों या साहित्य  को राहुल जी  तिब्बत से लाने में समर्थ नहीं थे, उनके करीब 1 लाख 80 हजार श्लोकों की फोटो खींचकर भारत लाये साथ ही सरह या सरहपा लिखित दोहाकोश भी तिब्बत से लाए . .जो आठवीं शताब्दी का ग्रंथ है .इससे पहले पता चला कि हिंदी  का प्रारंभिक काल दसवीं , ग्यारहवीं नहीं आठवीं शताब्दी में था. इससे पहले रामचंद्र शुक्ल एवं द्विवेदी जी हिंदी का उद्भव 10 वीं 11 वीं शताब्दी मानते थे . महाभारत से भी  बड़ी 50 लुप्त हो चुकी महत्वपूर्ण पुस्तकों की खोज राहुल जी ने की . राहुल जी की इसी प्रतिभा को देखकर लेनिनग्राद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर शर्वेत्स्की ने उन्हें भारतीय "कान्ट" कहा था .  राहुल जी के मित्र व सुप्रसिद्ध साहित्यकार बाबा नागार्जुन ने अपने एक लेख "विलक्षण राहुल" में लिखा है कि राहुल जी 18 - 18 घंटे काम करते थे और बुखार में भी लिखते थे .  वह कलम ही नहीं छेनी, हथौड़ी , टांका , सुई सब चलाना जानते थे. साहित्य , दस्तकारी सब एक आदमी कर ले तो निसंदेह प्रभावित करने वाली बात है .उनसे पूर्व - पश्चिम दोनों जगहों के विद्वान प्रभावित थे .आचार्य नरेंद्र देव , नेहरू , राजेंद्र प्रसाद , काका कालेकर से सिल्थालेवी, चरेवास्की, रूडोल्फ आदि सभी प्रशंसक थे . नागार्जुन जी के इस कथन से राहुल जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व का पता चलता है . सबसे अधिक चकित करने वाली बात यह है कि उनके समय की लगभग सभी प्रतिभाएं संपन्न व बुद्धिजीवी परिवार में पैदा हुई और अधिकांश ने विदेशों में शिक्षा प्राप्त की . जबकि राहुल जी आम परिवार में पैदा हुए और स्वशिक्षित थे . उन्होंने स्वयं के अभ्यास व लगन से दुनिया भर की संस्कृति , समाज व इतिहास का वैज्ञानिक व वैचारिक दृष्टि से उनकी भाषा सीख कर अध्ययन किया और उसका निचोड़ लिखा . जिस समय राहुल जी लिख रहे थे उस समय राधाकृष्णन, रानाडे, दासगुप्ता जैसे दर्शनवेत्ता थे . जगदीशचंद्र बसु , सीवी. रमन, मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक थे . लेकिन इन सब में राहुल जी विशिष्ट थे .क्योंकि वह प्रयोगशाला या अध्यापन तक सीमित नहीं रहे . वे घुमक्कड़ ,सक्रिय राजनीतिज्ञ ,विश्व पर्यटक होने के  साथ – साथ श्रीलंका , चीन और रुस में प्राध्यापक भी रहे . एक ही व्यक्ति में इतने गुण दुर्लभ हैं .राहुल का व्यक्तित्व बहुआयामी था . वह लेखक, चिंतक, घुमक्कड़ के साथ - साथ प्रबल राष्ट्रवादी थे. वह हिंदू - मुसलमान को अलग नहीं मानते थे . बल्कि भारतीय मानते थे .वह अपने एक निबंध“तुम्हारे धर्म की क्षय “ में लिखते हैं - हिंदू और मुसलमान फरक - फरक रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है ? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का खून बह रहा है .  जो इसी देश में पैदा हुए और पले फिर दाढ़ी और चुटिया, पूरब और पश्चिम की नमाज क्या उन्हें अलग कौन साबित कर सकती है ? क्या खून पानी से गाढ़ा नहीं होता ? फिर हिंदू और मुसलमान के फरक से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिंदुस्तान के बाहर कौन स्वीकार करता है ? जापान में जाइए, जर्मनी जाइए, ईरान जाइए या तुर्की . सभी जगह हमें हिंदी और इंडियन कह कर पुकारा जाता है . जो धर्म भाई बेगाना बनाता है . ऐसे धर्म को धिक्कार ... आगे लिखते हैं - एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कन्फूसी लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है .  एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिन्तोधर्मी है लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है . तो हम हिंदियों के मजहब को टुकड़े टुकड़े में बांटने को क्यों तैयार हैं . हम इन नाजायज हरकतों को क्यों बर्दाश्त करें ? राहुल जी सनातनी ब्राम्हण परिवार में पैदा होने के बावजूद पंडे- पुजारियों और उनके धार्मिक आडंबरों के कट्टर विरोधी थे . वे बौद्धिकवाद के प्रबल समर्थक थे .राहुल जी  अपने एक निबंध “धर्म और ईश्वर “ में लिखते हैं  - मनुष्य जाति की शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उससे उत्पन्न मिथ्या विश्वासों का समूह ही धर्म है . हलांकि इस पर लेखकों के गहरे मतभेद हैं . यह बातें उन्होंने अपनी बौद्धिकता के आधार पर कही . राहुल जी एक दुर्लभ एवं स्वच्छंद व्यक्तित्व  वाले थे . वह अपने दायरे स्वयं बनाते एवं तोड़ते थे . जो उनकी जीवन यात्रा में स्पष्ट दिखता है . पहले हिंदू बैरागी, फिर आर्यसमाजी ,फिर बौद्ध और फिर 1939 में कम्युनिस्ट .विवेकानंद की तरह राहुल जी भी नवजागरण के शिखर पुरूष थे . राहुल जी रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में पैदा होकर भी धर्मांधता का विरोध करते रहे . जो राहुल जी की बड़ी विशेषता थी. राहुल जी के चरित्र में सादगी, स्वध्याय, निर्भीकता, त्याग ,लोकोन्मुखता, दिमागी खुलापन, बहुआयामिता,  विवेकपरकता, कला प्रेम, देशभक्ति ,स्वच्छंद भ्रमण, पुरातत्व इतिहास से लगाव एवं क्षमा जैसे गुण समाहित थे . यही सब मिलाकर उनके व्यक्तित्व को महान व बहुआयामी बनाते हैं . राहुल जी किसानों के सच्चे हिमायती थे.    
     साहित्य व घुमक्कड़ीपन से इतर जब जमींदारों द्वारा किसानों के हक़ों पर बर्बरतापूर्वक कब्जा किया जा रहा था . तब राहुल जी  किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए नागार्जुन जी व अन्य सहयोगियों के साथ 20 जनवरी 1939 को छपरा पहुंचे . सभी प्रभावशाली लोगों से मिले किसानो की व्यथा सुनाई . किन्तु सुनवाई न होते देख स्वयं हँसिया लेकर गन्ना काटने के लिए खेत में खुद उतर गए . जमींदारों की तरफ से राहुल जी पर लाठी से हमला कराया गया .  राहुल जी  का सिर फट गया . खून से लथपथ हो गए और उल्टा गिरफ्तार कर उन्हें छपरा जेल भेज दिया गया .इस आंदोलन में नागार्जुन जी भी उनके साथ थे . राहुल जी डटे रहे .राहुल जी को चोट लगने की खबर जब अखबारों में छपी . तो पूरा बिहार आंदोलित हो उठा. इसी घटना पर प्रसिद्ध हिंदी अख़बार “साप्ताहिक जनता” में मनोरंजन जी की कविता छपी .
राहुल के सिर से खून गिरे,
फिर क्यों वह खून न उबल उठे
साधु के शोणित से फिर क्यों ?
सोने की लंका जल उठे .
उस समय यह कविता लोगों की जुबान पर चढ़ गई . राहुल जी को स्वस्थ होने में लंबा समय लगा. क्योंकि घाव गंभीर थी. फिर भी वह लड़ते रहे . आखिरकार 1 अप्रैल 1939 को पूरे बिहार में राहुल पर प्रहार विरोधी दिवस मनाया गया . जेल में रहते हुए ही राहुल जी ने 14 मार्च 1939 को चर्चित पुस्तक “तुम्हारी क्षय” लिखना आरंभ किया . दूसरी तरफ केस चलता रहा.
7 अप्रैल 1939 को सीवान अदालत ने धारा 379 के तहत 3 माह की कैद और 30 का जुर्माना राहुल जी सहित आंदोलनकारियों पर लगाया . उस वक्त के “जनता साप्ताहिक” के संपादक व प्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी ने जोरदार संपादकीय लिखा. उन्होंने अदालत के फैसले को अविवेकपूर्ण बताते हुए लिखा कि -  “एक विश्वविख्यात महात्मा की कीमत 10 रुपये आंकी गई” .ऐसे थे राहुल सांकृत्यायन .राहुल जी ने वास्तव में किसानों की लड़ाई पूरी निष्ठा से लड़ी.  इसमें राहुल जी का बराबर साथ दिया नागार्जुन जी ने . इसी आंदोलन के समय जेल में ही रूस से राहुल जी को आचार्य शचेर्वात्सकी  का तार मिला . जिसमें लिखा था - लोला को एक सुंदर पुत्र प्राप्त हुआ है. जन्म की प्रसन्नता होनी ही चाहिए. क्योंकि पुत्र ही आदमी का पुनर्जन्म और परलोक है .पत्र के साथ फोटो भी था. लोला राहुल की जी की रूसी पत्नी थी यह बात राहुल जी ने  अपनी जीवनी मेरी जीवन यात्रा में लिखी है .  राहुल जी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा बिहार में बीता 20 अक्टूबर 1939 को जब पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कमेटी का गठन हुआ तो , उसके 19 प्रारंभिक सदस्यों में से एक राहुल जी भी थे . राहुल जी के जीवन पर रूस यात्रा का काफी प्रभाव पड़ा . राहुल जी के मन में साम्यवाद के प्रति 1918 -19 से ही एक आकर्षण था उसका कारण हिंदी पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित रूसी क्रांति की खबरें थीं. आखिरकार 1935 में उन्होंने पहली रूस यात्रा की. फिर उन्हें साम्यवाद का सैद्धांतिक ज्ञान व अनुभव हुआ .1937 में दूसरी बार उन्होंने रूस की यात्रा की और 15 मास रूस में रहे. इस दौरान उन्होंने 12 सौ पृष्ठों का नोट तैयार किया तथा 500 पृष्ठों में रूसी संस्कृति ,शब्दावली ,व्याकरण आदि की टिप्पणियां तैयार की . जिसका परिणाम 1939 में उनकी दो पुस्तकें सोवियत न्याय और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास प्रकाशित हुई. 1942 में वैज्ञानिक भौतिकवाद लिखा . इसी समय राहुल जी की जीवन एवं इतिहास दृष्टि भी प्रौढ़ हुई. इसी समय रूस में राहुल जी का लोला से प्रेम हुआ और आगे चलकर लोला से उन्हें इगोर नामक पुत्र पैदा हुआ . जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं. रूस यात्रा का राहुल जी के जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ा .मार्क्सवाद और बुद्धिज्म का  तुलनात्मक अध्ययन का विचार राहुल जी के रूस भ्रमण के बाद ही आया .राहुल जी का मत था कि जिस प्रकार यूरोप में मार्क्स के सिद्धांत की नींव हीगेल के दर्शन से उठी थी, उसी प्रकार भारत में मार्क्सवाद को बौद्ध दर्शन से प्रेरणा लेनी चाहिए . राहुल जी ने बुद्धिज्म को जानने के लिए निष्ठापूर्वक अध्ययन किया . बुद्धिज्म के लिए जो प्रयास राहुल जी ने किया . वह शायद ही किसी ने किया. राहुल जी के मित्र व विद्वान काशी प्रसाद जायसवाल लिखते हैं कि  - 1930 में पहली तिब्बत यात्रा में  राहुल जी तिब्बत से पुस्तकें, पेंटिंग व अन्य साहित्य सामग्री 22 खच्चरों पर लादकर भारत लाए .उनमें वज्र डाकतंत्र की एकमात्र संस्कृत की हस्तलिखित पुस्तक थी . जो ताड़ के पत्तों पर कुटिल लिपि में लिखी गई थी .यह 11 वीं या 10 वीं शताब्दी की रचना है . इसे पटना संग्रहालय में रखा गया है . भारतीय न्याय- दर्शन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति प्रमाण वर्तिका की मूल प्रति की खोज में दुबारा 1934 में राहुल जी तिब्बत गए . अपनी तीसरी यात्रा 1935 में इस महान अन्वेषक ने शाक्य , नगौर एवं शालू मठ से 156  नए ग्रंथों का उद्धार किया .जो अपने आप में युगांतकारी घटना है. भारतीय दर्शन एवं बौद्ध दर्शन के अध्येयता शताब्दियों तक इस महान खोज कर्ता के प्रति कृतज्ञ रहेंगे . राहुल सांकृत्यायन द्वारा उद्धार किए गए ग्रंथों की संपूर्ण सूची बिहार एवं उड़ीसा रिसर्च सोसायटी में उपलब्ध है .तिब्बत से लाये गये  समस्त ग्रन्थ संग्राहालय में रखे गए हैं .उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना बुद्ध के जीवन पर बुद्धचर्या है यह बातें काशी प्रसाद जायसवाल ने “संस्कृत की कोई कृतियों का तिब्बत से उद्धार”नामक एक लंबे लेख में लिखी है . राहुल जी ने बुद्ध दर्शन को तार्किक रुप से स्थापित किया. दर्शन की कई किताबें लिखी .जिनमें वैज्ञानिक भौतिकवाद, बौद्ध दर्शन एवं दर्शन दिग्दर्शन जोकि बेहद चर्चित भी रही .वहीं बौद्ध धर्म पर बुद्धचर्या, धम्मपद, मज्झिम निकाय, विनय पटिका, दीर्घ निकाय एवं महामानव बुद्ध लिखी . राहुल जी ने विपुल साहित्य का लेखन किया . जिनमें दर्शन, राजनीतिक, जीवनी , निबंध , यात्रा वृतांत , इतिहास, कहानी, उपन्यास आदि बहु विषयों एवं विधाओं में लिखा और पूरी गंभीरता एवं शोधपरक ढ़ंग से लिखा . जीवनियों में स्वयं की जीवनी मेरी जीवन यात्रा दो भागों में लिखी . थी इसके अलावा सरदार पृथ्वी सिंह, अतीत से वर्तमान ,स्तालिन, कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ त्से तुंग , वीर चंद्र गढ़वाली ,जिनका मैं कृतज्ञ और अकबर आदि महत्वपूर्ण जीवनियां लिखी . अकबर पुस्तक के अंतिम 37 पृष्ठ में सिर्फ परिशिष्ट है .जिसमें लिखा गया है कि पुस्तक की फला - फला घटना की वास्तविक जानकारी किस श्रोत या कहां से प्राप्त की गई है. इससे राहुल जी के लेखन की गंभीरता एवं शोधकर्ता का पता चलता है. वहीं राजनीतिक साम्यवाद पर साम्यवाद ही क्यों,  दिमागी गुलामी , सोवियत न्याय, आज की राजनीति, कम्युनिष्ट क्या चाहते हैं,  भागो नहीं दुनिया को बदलो , मानव समाज एवं बाईसवीं सदी ,प्रमुख हैं . यात्रा वृतांत के मामले में तो राहुल जी को भारतीय यात्रा साहित्य का पितामह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. उन्होंने आधी दुनिया की यात्रा की .रूस,चीन, ईरान, तिब्बत, नेपाल, श्रीलंका ,कोरिया ,जापान, इंग्लैंड, एवं यूरोप यात्रा की और यात्रावृत्त पर अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी . जिनमें मेरी लद्दाख यात्रा, लंका यात्रावली, तिब्बत में सवा वर्ष, मेरी यूरोप यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, जापान, ईरान, रूस में  25 मास , एशिया के दुर्गम खंडों में, एवं सबसे चर्चित यात्रा की पुस्तक घुमक्कड़ शास्त्र विशेष उल्लेखनीय है . जिसमें 15 लेख हैं सबसे चर्चित लेख है अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा इसमें राहुल जी लिखते हैं  - कोलंबस और वास्को द गामा घुमक्कड़ी ही थे . जिन्होंने पश्चिम देशो के आगे बढ़ने का रास्ता खोला . अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था . एशिया के कूपमंडूकों को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गई . इसीलिए अमेरिका पर अपना झंडा नहीं गाड़ा . दो शताब्दियों तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था. चीन और भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व था लेकिन इनको इतनी अकल नहीं आई कि वहां जाकर अपना झंडा गाड़ आते . आज अपने 40 - 50 करोड़ की जनसंख्या के भार से भारत और चीन की भूमिका दबी जा रही है और आस्ट्रेलिया में एक करोड़ आदमी भी नहीं हैं . आज एशियाईयों के लिए आस्ट्रेलिया का द्वार बंद है .  लेकिन दो सदी पहले वह हमारे हाथ की चीज थी . क्यों भारत और चीन ऑस्ट्रेलिया की अपार संपत्ति और अमित भूमि से वंचित रह गए . इसलिए कि वह घुमक्कड़ धर्म से विमुख थे उसे भूल चुके थे . इसी निबंध में बड़े ही रोचक तरीके से राहुल जी लिखते हैं कि कैसा घुमक्कड़ होना चाहिए, या घुमक्कड़ बनने के लिए क्या गुण होने चाहिए . निबंध के उत्तरार्ध में लिखते हैं  - यदि कोई तरूण - तरुणी घुमक्कड़ धर्म की दीक्षा लेता है मैं यह अवश्य कहूंगा कि यह दीक्षा वही ले सकता है जिसमें बहुत भारी मात्रा में हर तरह का साहस है , तो उसे किसी की बात नहीं सुननी चाहिए,  ना पिता के भय और ना उदास होने की , न भूल से विवाह कर लाई अपनी पत्नी के रोने - धोने की और न किसी तरुणी को अभागे पति की कलपने की. बस शंकराचार्य के शब्दों में यही समझना चाहिए  - निस्त्रैगुन्यै पथ विचारतः को विधि  को निषेधः और मेरे गुरु कपोत राज  को अपना पथ प्रदर्शक बनाना चाहिए.
 सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां
जिंदगानी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां
अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा के आखिरी हिस्से में वास्तव में राहुल जी ने स्वानुभव रखा है एक पंक्ति उन्होंने शायद अपनी पहली पत्नी संतोषी जी के बारे में निर्ममता पूर्वक लिखा है - न भूले से विवाह कर लाई गई अपनी पत्नी के रोने धोने की  वे संतोषी के साथ विवाह को भूल मानते थे. पर राहुल जी और इनके परिवार की एक भूल से संतोषी का पूरा जीवन ही निर्जन हो गया . उस समय की सामाजिक प्रथा के हिसाब से संतोषी जी ने अपना संपूर्ण जीवन बलिदान कर दिया . वास्तव में संतोषी के बलिदान का फल हैं कि साधारण अनगढ़ केदार महान राहुल सांकृत्यायन बन सके.
अपनी रूस यात्रा के दौरान ही राहुल जी ने रूस में लोला और फिर भारत लौटने पर कमला से विवाह किया . उनके जीवन के कुछ बड़े अंतर्विरोध भी हैं नागार्जुन जी एक बार राहुल जी के गांव गए थे . उनकी पत्नी से भी मिले थे . राहुल जी लिखते हैं  - चारों तरफ से स्त्रियां झांक रही थी जंगले से.  मैं चुप साधे था .तभी एक वृद्धा आई और उनकी पत्नी को खींच कर ले गई और जोर से चिल्लाती हुई बोली  - छोड़ो -  छोड़ो, चलो यहां से , यह भी किसी को छोड़कर भाग आया होगा केदारनाथ ने तो भगोड़ों की जमात कायम कर ली है. मैंने राहुल को ये प्रसंग सुनाया था . पर लेख में नागार्जुन जी ने यह नहीं लिखा कि,  प्रसंग को सुनने के बाद विलक्षण राहुल की क्या प्रतिक्रिया थी ?  इन तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद राहुल जी देश -  दुनिया को अपने विचारों और साहित्य लेखन से बहुत कुछ दिया . जिस प्रकार राहुल जी के कदम नहीं रुके,  उसी प्रकार उनकी कलम भी नहीं रुकी. कलम व कदम साथ - साथ कदमताल करते रहे . हर विषय पर कलम चलाई . इतिहास पर विश्व की रूपरेखा,  पुरातत्व निबंधावली, मध्य एशिया का इतिहास, भारत में अंग्रेजी राज्य के संस्थापक , बौद्ध संस्कृति जैसी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी . साथ ही कथा साहित्य में कहानी संग्रह  सतमी के बच्चे  और वोल्गा से गंगा बेहद चर्चित रही . यहां हल्की सी चर्चा बेहद जरूरी है . सतमी के बच्चे कहानी मात्र कहानी नहीं है . राहुल जी का आंखों देखा जीवन है संस्मरण है . इस कहानी की पहली ही पंक्ति है -  सतमी अहीरिन पन्दहा में सबसे गरीब थी. ध्यान देने वाली बात है, पन्दहा वही गांव है, जहां राहुल जी का बचपन बीता.पन्दहा  उनका ननिहाल था . नाना रामशरण पाठक का गांव . राहुल जी ने सतमी के बच्चे में जीवन का यथार्थ रूप दिखाया है . बिना लाग लपेट के.  कि कैसे गरीबी और अभाव के चलते सतमी अहीरिन के चारो पुत्र बुद्धू, सुद्धू, मुद्धू और संतू  एक- एक कर चारों पुत्र  जाड़े और अभाव की बलि चढ़ जाते  हैं . रात और दिन जिस समय उसे अपने बच्चे याद आते वह विलाप कर रोने लगती थी. पंक्तियां देखिए -   हाय बुद्धू ,क्या पिसाई करके तुम्हें इसीलिए पाला था ? तुम मुझे धोखा देकर चले गए.  हाय मैं कितनी निर्लज्ज हूं .अपने चार बेटों को खाकर  अब भी बैठी हूं. हाय देव मुझे काहें नहीं उठा लेते.
 राहुल जी का दूसरा कहानी संग्रह वोल्गा से गंगा भी बेहद चर्चित रहा . वोल्गा से गंगा मात्र कहानी नहीं है . बल्कि ये कहानियां 8000 वर्षों तक फैले मानव जीवन के विकास का इतिहास प्रस्तुत करती हैं .  भूमिका में राहुल जी लिखते हैं -  मनुष्य आज जहां है, वहां प्रारंभ में ही नहीं पहुंच गया था. इसके लिए उसे बड़े – बड़े संघर्षों से गुजरना पड़ा .  मनुष्य के दीर्घ संघर्ष और सृजन की कहानी है “वोल्गा से गंगा”
कार्ल मार्क्स  की तरह राहुल जी इतिहास लिखने के बजाए इतिहास बदलने पर बल देते थे .राहुल जी ने सिंह सेनापति, जय यौधेय, मधुर स्वपन और विस्मृत यात्री जैसे ऐतिहासिक उपन्यास लिखे . उनकी चर्चित पुस्तकों में घुमक्कड़ शास्त्र,  भागो नहीं दुनिया को बदलो , दर्शन- दिग्दर्शन, सतमी के बच्चे , वोल्गा से गंगा और  बुद्ध चर्या प्रमुख हैं .राहुल जी ने भोजपुरी में भी कई नाटक लिखे जिनमें मेहरारून की दुर्दशा और नइकी  दुनिया उल्लेखनीय है । वह मेहरारू की दुर्दशा में लिखते हैं बेहद तीखे व विद्रोह के स्वर में –
एके माई बपवा से एक ही उदारवा में
दूनों के जनमवां भइल रे पुरुखवा
पूत के जनमवा में नाच आ सोहर होला
बेटि के जनम परे  सोग रे पुरूखुवा
धनवा धरतिया पे बेटवा के हक होला
बिटिया के किहुओ ना हक़ रे पुरुखवा .
राहुल जी  नारी स्वतंत्रता व उसके अधिकार को लेकर भी मुखर रहे हैं . उनकी चर्चित पुस्तक भागो नहीं दुनिया को बदलो में औरत शीर्षक से एक पूरा अध्याय है .वह लिखते हैं  - मरद औरत को गुलाम बनाकर अपने घर में लाता है और इसको कहते हैं ब्याह. राहुल जी के लेखन एवं व्यक्तित्व पर एक लेख या वार्ता में लिखना संभव नहीं है पर एक दृष्टि तो डाली ही जा सकती है एक आखरी बात यह कि राहुल जी हिंदी के पक्षधर होने के साथ-साथ हिंदी के अनन्य प्रेमी व लेखक हैं .  वे तमाम भाषाएं समझते व बोलते थे , पर उन्होंने अपना महत्वपूर्ण लेखन हिंदी में किया . दूसरी भाषाओं के ज्ञान का उपयोग उन्होंने ज्ञानार्जन एवं अनुवाद में किया . अपनी जीवनी मेरी जीवन यात्रा में एक जगह लिखते हैं - 34 बरस पर लौटे राम शरण पाठक के नाती अथवा हिंदी के लेखक राहुल सांकृत्यायन की खबर पाकर आसपास के गांवों के लोग भी आते रहे .  यहां ध्यान देने योग्य बात है  कि राहुल जी स्वयं को हिंदी का लेखक कहलाने में गौरव अनुभव करते हैं . हिंदी और विकास लेख में राहुल जी लिखते हैं  - यदि किसी समाज का निम्न वर्ग उन्नति करेगा,  तभी पूरा समाज उन्नति करेगा और उनके उत्थान का यह कार्य किसी विदेशी भाषा के माध्यम से संभव नहीं .  क्योंकि भाषा का सवाल सीधे रोटी का सवाल भी होता है . दूसरे लेख में जिसका शीर्षक हिंदी के विभीषण है में राहुल जी लिखते हैं  - जो आजाद भारत में भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे और पैसा खर्चा करके अंग्रेजी पढ़ते हैं वह हिंदी को क्यों पसंद करने लगे. ऊंची नौकरियों की प्रतियोगिता के लिए हिंदी या प्रादेशिक भाषाओं को माध्यम मान लेने पर “सब धान 22 पसेरी हो जाएगा” । कान्वेंट की घुट्टी पिलाने वाले या यूरोपियन स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों के पास ही प्रतिभा की इजारेदारी है यह कोई नहीं मानेगा . हिंदी में प्रतियोगिता होने पर उनके लिए सफलता  अत्यंत संदिग्ध है .इसीलिए उनके माता-पिता जिनमें देव - महादेव से लेकर बड़े-बड़े नौकरशाह तक शामिल हैं कभी पसंद नहीं करते कि अंग्रेजी हटे.  एक जगह और वह लिखते हैं - चाहे दिल्ली के देवता कितने ही शाप देते रहें , अपनी मातृभाषा और मातृ संस्कृति के प्रति लोगों का प्रेम कम नहीं हो सकता तो ऐसा था राहुल जी का हिंदी व भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम

1 टिप्पणी:

  1. निशब्द हुँ पढ़कर।राहुल जी सांकृत्यायन पर ये ज्ञानवर्धक आलेख पढ़कर।।हार्दिक आभार पवन जी।🙏🙏

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