बाहर
– बाहर घूम आये
पर्वत
जंगल
चूम आये
लौट
रहे अब अपने अंदर
हिय
के मौसम झूम आये
भटक
रहे ज्यों बंदर
थे
प्यासे हुए समंदर थे
जो
भी बाहर खोज रहे थे
वो सब मेरे
अंदर थे
आँख
भी होकर अंधे थे
स्वार्थ
में हो गये गंदे थे
मन की भी
आँखे होतीं
कितने भोले बंदे थे
अपने
अंदर झाँक सको तो
निज
को निज से आँक सको तो
जीवन
हर्ष भरा होगा फिर
स्व
को स्व ही हाँक सको तो
पवन
तिवारी
१९/०८/२०२१
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