स्नेह
की सरिता सूख रही है
मानवता अब पूछ रही है
अनाचार
छल व्याप्त हुए क्यों
पावनता
क्यों रूठ रही है
संगति साझी टूट रही है
पीढ़ी
सब कुछ बूझ रही है
करती
है फिर भी अनदेखा
परम्परा भी छूट रही है
एकल
अब परिवार हो रहे
स्वारथ
में अपनों को खो रहे
स्वतंत्रता
कुछ कम लगती है
स्वच्छन्दता
के घर में सो रहे
लोग
हैं धन के जाल बो रहे
रिश्तों से हैं हाथ धो रहे
सारे खुद को समझें राजा
अहंकार का ताज़ ढो रहे
पवन
तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें