अपने
ही
लूटते जा रहे
रोज ही टूटते जा रहे
अपनी
ही ताक में अपने सब
रिश्ते
भी
छूटते जा रहे
उसके
दुःख से ख़ुशी हो
रहे
स्वप्न
वैभव में ही खो रहे
उसका
सुख देख विचलित हुए
रात
जागें सुबह सो
रहे
ऐसे
वक़्त
में भी जी रहे
ज़ख्मो
को कपड़ों सा सी रहे
होठ
हँसते ह्रदय रो रहा
घूँट
में
ज़िन्दगी
पी रहे
ज़िन्दगी
भर जहर में रहे
कहने
को हम शहर में
रहे
उनको
स्थिरता का क्या पता
उम्र
भर जो लहर में रहे
पवन
तिवारी
२६/०८/२०२१
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