बरखा
जब क्रीड़ा को आयी
धरती
सोंधे स्वर में गायी
नवल
हुए ज्यों तरु धुल धुल के
पोखर
हँस के ले अंगड़ाई
दामिनि
बरखा को प्रेम करे
नाचे
तेजोमय
रूप
धरे
कुछ
हिय काँपे कुछ हुलसित हो
कुछ
नये दृश्य हों हरित हरे
बरखा
का प्रेमी एक और
उसका
भी ना कोई एक ठौर
बरखा
के संग संग नृत्य करे
हर दौर में उसका रहे दौर
वह मेघों के भी संग खेले
वह जल की लहरों को ठेले
वह जीवनदायी वायु सखे
वह
जग भर को प्रतिक्षण झेले
बरखा
तुम जब भी आती हो
शीतल
सुखमय कर जाती हो
जीवनदायी
हो तु म भी तो
जीवन
देकर सुख पाती हो
पवन
तिवारी
२०/०५/२०२१
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