ज़िंदगी
में धूप बढ़ती
जा रही है
जेठ
के कुछ जैसे तपती जा
रही है
जो भी कोमल
भाव हैं मुरझा
रहे
ज़िंदगी
की हँसी ढलती
जा रही है
अहं
की दीवार उठती
जा रही है
स्नेह
वाली आग बुझती जा रही
है
रिश्तों
में मतलब की गाँठें बढ़ रहीं
अपनेपन
की गंध मरती जा रही है
दुनिया
अपने मन की करती जा रही है
ग़ैर
के मन को झिड़कती जा रही है
हर तरफ तस्वीर
अपनी
ही सजा
जो हैं दर्पण
तोड़ती ही
जा रही है
आदमीयत
बस बिखरती जा रही है
पाशविकता
बस निखरती जा रही है
जो
बचे हैं अब भी मिल प्रतिरोध कर लो
साँस
अंतिम है उखड़ती जा
रही है
पवन
तिवारी
१६/०५/२०२१
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