उसने
ऐसी पीड़ा दी
है
दिन
दिन बढ़ती जाती है
जितना
दूर भागना चाहूँ
उतना क़रीब
आती है
रोम
रोम से आह निकलती
उधर
बहुत सुख पाती
है
मुझे
दुखित देखना उसे बस
छल से जुल्म
वो ढाती है
मैं
रोता तो मुस्काती
वो
ऊँचे स्वर में गाती है
मैं
कायर हूँ दिखलाने को
कितनों
को ही बुलाती है
लक्ष्य
से कभी नहीं है डिगती
थोड़ा
– थोड़ा रोज मारती
प्रेम
ही बस विश्वास किया था
सज़ा
मिली है रोज बारती
प्रेम
न करना नहीं कहूँ मैं
प्रेम
करो पर सजग भी रहना
बराबरी
का रिश्ता रखना
प्रेम
में कभी न सब कुछ सहना
प्रेम
का घाव
बड़ा जहरीला
इसमें
उर क्या मन जलता है
बदन
के घाव तो हैं भर जाते
इसका घाव
नहीं भरता है
ना होता है
केवल अमृत
प्रेम
में बड़ा जहर होता है
अमृत
पीना हर कोई चाहे
बिरला
कोई शिव होता है
पवन
तिवारी
१३/०५/२०२१
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