आत्ममुग्धता
का है दौर चल रहा
नैतिकता
का भी आँचल है ढल रहा
क्षरित
हो रहा है समय है उसी
का
आदमी
के अंदर कोई और पल रहा
स्मृतियों
में बस सुखद
है कल रहा
वर्तमान
अपना जगत को खल रहा
स्वास्थ्य
स्वास्थ्य कहकर बाज़ार इक बना
उसके
उपचार से बदन है गल रहा
रिश्तों
को अपने ही हाथ मल
रहा
अपनों
को देख के अंदर ही जल रहा
ऐसे
में दुःख करीब और
आ रहा
ऐसे
में सुख का भाव रोज टल रहा
दूसरों
के फेरे में निज को छल रहा
बुरा
करके सोचता बुरा ही फल रहा
दुराचरण
ने सदाचरण को यूँ निगला
मनुजता
का आज भी अधर में हल रहा
पवन
तिवारी
११/०५/२०२१
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें