सोचते
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सोचते दिन गुजरते
गये
उम्र के साथ अरमान बढ़ते गये
दिन-ब-दिन
तेजी से उम्र ढलने
लगी
हौंसले
थे जवाँ हम
सो
चढ़ते गये
रोज
दुःख आते थे हमको
हड़काते थे
रोग
भी लक्ष्य से
हमको भटकाते थे
फिर
भी हँस देते थे हम भी फीका सही
इस
तरह अपने सपनों को भड़काते थे
लेके
आशीष फिर जोश
से चलते थे
जो बुरे काल थे हाथ ही मलते
थे
मरने
से पहले कुछ रचने का हठ लिए
वैरी
जलते थे हम दीप सा जलते थे
कितनी
हारों को ले करके हिय जीता है
घाव
काया पे है किन्तु उर
गीता है
जो
भी इस मंत्र को सिद्ध कर ले गया
अंत
जीवन का अमृत
वही पीता है
पवन
तिवारी
०८/०७/२०२१
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