काँटों
जैसा जीवन है
फूलों
जैसा कहता हूँ
झूठा
हूँ या बुद्धू हूँ या
किस
दुनिया में रहता हूँ
अंदर
- अंदर रोता हूँ
बाहर-बाहर
हँसता हूँ
अपनी
ही बातों में मैं
धीरे
– धीरे फँसता हूँ
जितना
अच्छा किया हूँ जब भी
उतनी
बड़ी लगी तोहमत
सच्ची
बात पे सब रूठे थे
झूठी
बात पे सब सहमत
जब
भी होंठ खोलने होते
संशय में
पड़ जाता हूँ
अक्सर
सच के चक्कर में मैं
सिसक-सिसक
घर आता हूँ
ऐसे
में इक बात जरुरी
कहने
को रह जाती है
बिस्तर
पर पड़ते ही मुझको
लेने
निदिया आती है
पवन
तिवारी
संवाद-
७७१८०८०९७८
२१/०२/२०२१
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