सोचते - सोचते दिन गुजर जाते हैं
रूप को देख करके मचल
जाते हैं
उम्र इक ऐसी होती भी जीवन में है
सोचे बिन भी बहुत कर
गुज़र जाते हैं
जाने किस-किस की
खातिर भी लड़ जाते हैं
जाने किस-किस के
चक्कर में पड़ जाते हैं
उम्र ऐसी कि घर भर परेशान है
सोचते कुछ नहीं पहले कर जाते हैं
छोटी बातों की खातिर
भी अड़ जाते हैं
फिर बहन के लिए तो झगड़ जाते हैं
पैसे दस – दस
बहाने से हैं
ऐंठते
बाप से गाल पर रोज पड़ जाते हैं
हर महीने ही सपने बदल
जाते हैं
काम कुछ जो कहो कहते
कल जाते हैं
वैसे खुद को
बताते सयाने बहुत
किन्तु लड़की के
हाथों से छल जाते हैं
जिद पकड़ लें तो कुछ
भी ये कर जाते हैं
हों जो नाराज मित्रों के घर जाते है
बाप है डांटता माँ दुलारा करे
बहन रोती है तो फिर ये डर जाते हैं
एक बिजली सदा दौड़ती रहती है
उम्र को जल्दबाजी बहुत रहती है
सारे समझाने वाले हैं होते विफल
उसकी अपनी समझ ही
बड़ी रहती है
एक ऐसी उमर जोश होता बहुत
एक ऐसी उमर रोष होता बहुत
होती अच्छाइयाँ भी नहीं कम मगर
गर न संभलें तो फिर
दोष होता बहुत
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
१०/०८/२०२०
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें