अपनी क्या कहूँ कि
कहूँ न कहूँ
मासूम धूसरित गलियों
में
गोबर सा खेतों में बिखरा
चुपचाप रहा भी
कलियों में
तन ढकने तक की बात
जहाँ
पट सदा पुराने फटे
मिले
कुरते पाजामें में
गुज़री
ज्यादातर थोड़े सिले
मिले
कपड़े धोने को रेह
मिली
बालों को चिकनी माटी
थी
रोटी संग प्याज मिले
चोखा
भोजन की ऐसी थाती थी
विद्याधन की भी बात
करूँ
पुस्तक ना थी पर
शिक्षा थी
दूसरों को देख पढ़ा
जो भी
वही अपनी पावन
दीक्षा थी
कुछ बड़े हुए बालक हो
गये
बँटवारे का फिर सिला
मिला
फिर दुःख आकर घर बैठ
गया
संघर्षों का सिलसिला
मिला
फिर अपमानों की झड़ी
लगी
बालक अब ज़रा किशोर
हुआ
फिल्मों का चस्का
लगा उसे
आवारा है का
शोर हुआ
फिर बीमारी आ चढ़
बैठी
अम्मा का चेहरा
म्लान हुआ
पूरा घर मुरझायी
बगिया
जीवन बेसुरा सा तान
हुआ
मैं आया फिर बम्बई
नगर
१५ की उम्र में नयी
डगर
जीवनदान मिला अम्मा
को
चलता ही रहा संघर्ष
मगर
कितनी रातें
भूखी गुजरी
कितने दिन-दिन अपमान
सहा
लेखक बनना है मुझको भी
जाने अंजानों से
भी कहा
कितनी दुत्कार मिली
मुझको
दरवाज़े से ही भगा
दिया
इन अपमानों
दुत्कारों से
मुझको अंदर से जगा
दिया
मैं गिरता था फिर
उठता था
मैं घिसट-घिसट के
चलता था
इतने पर भी ये सभ्य
जगत
तिनके को देख कर
जलता है
जो कुछ भी पसीने से
पाया
वो पूरे घर का पोषण
था
घर में जब हरियाली
आयी
फिर पता चला कि शोषण
था
इन संघर्षों में
ब्याह हुआ
खुशियों का था आभास
हुआ
दुःख के पाषाण लगे
गिरने
फिर रोया बहुत निराश
हुआ
मैं मानुष ना इक चीज
रहा
मुझमें सबने हिस्सा ढूंढा
साहित्य जगत को क्या
बोलूँ
सबने मुझमें किस्सा
ढूंढा
ढलने को उमर मेरी
आयी
जग में मैं खड़ा
अकेला था
फिर दूर एक रेला
देखा
था मित्रों का जो
मेला था
फिर साहस को पकड़ा
मैंने
खुद को आश्वस्त किया
हँसकर
अपना परिवार यही अब
है
सब गले मिले कस कसकस
कर
फिर कलम चली चलती ही
गयी
जीवन का उजला आस
लिखा
जग ने जग भर में
क्या-क्या लिखा
मैंने अपना इतिहास
लिखा
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
२७/०७/२०२०
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