कभी-कभी संतोष के साथ
थोड़ा - थोड़ा, रुक –
रुक,
वो कभी-कभी उस दिन आता;
जब अकेले में होता
हूँ.
या भीड़ में भी अकेले
हो रहा होता हूँ.
और अपने अंदर
देखने लगता हूँ.
अपनी ही दृष्टि को और
फिर
वो दिखाती है कुछ विरल
जब दूसरों की आँखों
की
पुतलियों के भीतर
गड़ने लगता हूँ;
और वे डबडबा कर
हो जाती हैं लाल,
जब कुछ आँखों में
खटक रहा होता हूँ और
किन्हीं में तो
अटक ही जाता हूँ.
तब डरता नहीं हूँ.
परेशान भी नहीं
होता;
भर जाता हूँ
आत्मविश्वास से,
ज्वार की तरह.
बढ़ने लगती है ऊर्जा
साधारण सा, गेहुँए
रंग का;
थोड़ा मटमैले सा,
जरा खुरदुरा भी
मेरा गोल मटोल चेहरा
चमक उठता है.
हृदय में विश्वास का
स्वर उभरने लगता है,
शरीर की भाषा भी
बदल जाती है,
देखते-देखते.
आभार प्रकट करने की
दृष्टि से देखता हूँ;
अपनी विरल दृष्टि को;
मुस्काते हुए
अपनी पीठ को
अपने ही हाथों ठोंक
कर,
शाबासी देने की
असफल कोशिश करते हुए
कदम तेज हो जाते
हैं.
क्योंकि उन्हें आभास
हो जाता है कि
वे सही पथ पर हैं.
पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८
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