एक जमाना उत्सव
गाये
एक जमाना भूख को रोये
एक ही जग में दो-दो
जमाने
कैसे सब कुछ अच्छा माने
नये साल में हुए दीवाने
झूम झूम के गाये गाने
कुछ रोटी के लिए दौड़ते
बुनते उसके ताने
बाने
कुछ ही देश की चिंता
करते
ज्यादातर झोली ही
भरते
ढीठाई अब संस्कृति
हो गयी
भ्रष्टाचार से कहाँ
हैं डरते
कुछ अपने ही घर में
बंद हैं
कुछ सड़कों पर लंद - फंद
हैं
कुछ की साकी शरम ले
गयी
गैरत वाले फ़क्त
चंद हैं
कुछ तो कल की सोच
रहे हैं
स्पर्धी को टोंच रहे हैं
कुछ तो आज दरिन्दे होकर
अवसर पाकर नोंच रहे हैं
पर मैं सबसे अलग बहा
हूँ
ऊँच-नीच सब कुछ ही
सहा हूँ
निंदक और प्रशंसक जितने
सबका ही प्रिय पात्र रहा हूँ
लेखक हूँ सो चलन चाल पर
भारत माँ के स्वच्छ
भाल पर
कोई दाग न लगाने पाये
यही प्रार्थना नये साल
पर
खुद से ही यह अभिलाषा है
कुछ सच रचने की आशा
है
कुछ बेहतर दे सकूँ
राष्ट्र को
यह मेरे हिय की
भाषा है
सच है कि यह बड़ा देश है
देश का पर उलझा भी
केश है
अभी बहुत कुछ करना
मिलकर
सत्य है ये भी समर
शेष है
मेरे लिए प्रत्येक चन्दन है
इसीलिये सबका वन्दन है
सबसे कुछ ना कुछ
सीखा है
नये साल पर अभिनन्दन
है
पवन तिवारी
संवाद - ७७१८०८०९७८
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