यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

हिन्दी से नेह और उसकी कीमत


अपनों से दुत्कार मिली है
संघर्षों से राह मिली है
साहस की तो बात न पूछो
पत्थर जैसी साँस मिली है

पग-पग निंदा टांग खिंचाई
गले में अँटकी रहे रुलायी
फिर भी अधर भींच के बढ़ता
श्रम ऐसा हड्डियाँ गलायी

हार नहीं मानी जब मैंने
दुःख गुस्सा होकर चिल्लाया
कान दिया ना तिस पर मैंने
यूँ भागा जैसे बौराया

स्वाभिमान का किया न सौदा
टूट गया था मेरा घंरौदा
कसे फब्तियाँ लोग ही अपने
अपनों ने ही मुझको रौंदा

पर मन ने जो ठानी थी
सो अपने मन की मानी थी
अपने शर्तों पर जीने की
कीमत हमें चुकानी थी  

मित्रों ने भी ढेले मारे
एक नहीं बहुतेरे मारे
डिगा सके ना फिर भी मुझको
बगल झांकते शर्म के मारे

पर कुछ मित्र बहुत प्यारे थे
सबसे अलग बहुत न्यारे थे
अपने हिस्से में से देते
उनकी आँखों के तारे थे

कीमत बड़ी चुकायी  थी
फिर आज़ादी पायी थी
भोग छोड़ के बना था जोगी
बहुतों ने तब कहा था ढोंगी

हिन्दी पर खुद को वारा है
घर भर की इच्छा मारा है
दर-दर जाकर शब्द चुने हैं
तानों से मुझको तारा है

गहने पत्नी के बेचे थे
आँसू से खुद को सींचे थे
मंचों पर जब धूर्त जमें थे
हिन्दी लेकर हम नीचे थे

जीवन बीमा बंद हो गया
बिटिया का भी भाग्य था छीना
पत्नी थी ताना दे बोली-
इसको कहते हो तुम जीना

पुष्पगुच्छ से घर नहीं चलता
बच्चों का भी पेट न पलता
ऐसे सम्मानों का क्या है
इन शालों से पैर न ढंकता

सब स्मृतिचिन्ह बेंच के आओ
मगर आज तुम दूध ले आओ
हतप्रभ था पलकों में आँसू
देख रहे क्या जाकर लाओ

पत्नी ने फटकारा था
इज्जत बहुत उतारा था
शब्दों के साधक को उसने
शब्दों से ही मारा था

उस दिन एक प्रतिज्ञा की थी
खुद से ही दृढ आज्ञा ली थी
हिन्दी से मैं महल बनाऊँ
तब जाकर कहीं ‘पवन’ कहाऊं

खुद से बरसों बरस लड़ा था
गिर-गिर के मैं हुआ खड़ा था
कितनों ने अपमान किये थे
पत्थर सा चुपचाप पड़ा था  

रिश्ते नाते छूट गये थे
अच्छे धागे टूट गये थे
हिन्दी से मैं पेट भरूँगा
सुनकर कितने रूठ गये थे

हिन्दी भी बरसों अजमाई
सालों साल मुझे तरसाई
स्कूटर भी भेंट चढ़ गया
भूखे पेट बहुत तड़पाई

मैं पागल प्रेमी हिन्दी का
उसके माथे की बिंदी का
प्यार किया तो ब्याह रचाया
मान के साथ उसे घर लाया

मस्तक आज जो ऊँचा है
संघर्षों   से   सींचा   है
मुझे झुकाने वालों का सर
खुद से खुद ही नीचा है

फिर जब प्यार की बारी आयी
खुशियाँ बारी – बारी आयी
हिन्दी संग दम दम दम दमका
जीवन में ख़ुशहाली आयी

खुशियों का फिर ढेर लग गया
हरियाली का पेड़ लग गया
हिन्दी यूँ प्रसन्न हो बरसी
समृद्धि का बसेर लग गया

सब कुछ खोकर के है पाया
हिन्दी ने फिर गले लगाया
जोर से रोकर के फिर गाया
अच्छा दिन हिन्दी संग आया

ये हिन्दी का बच्चा है
हिन्दी जैसा सच्चा है
ये सुनकर के खुशी है होती
इतना कम क्या अच्छा है



पवन तिवारी
संवाद – ७७१८०८०९७८ 







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