यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

ख़्वाब और सपनें














गांव से शहर आके मुझे करीब 19 साल हो गए थे

इन 19 सालों में बहुत बार, बहुत से ख्वाब देखे

वैसे जब गांव से शहर चलने की सोचा था तो

दिमाग में ख्वाब खलबली रच रहे थे पर

जब रेलगाड़ी में शहर के लिए सवार हुआ था

खिड़कियों से झांकने पर, गांव पीछे को भाग रहा था

भाग रहे थे, खिड़की के बाहर बगीचे, हरी-भरी फसलें

घास चरते जानवर और नदी,तालाब,कुएँ,सब

इन सबसे आगे, मेरी आंखों के आगे

सरपट चेतक की तरह ख्वाब दौड़ रहे थे


इस रेल गाड़ी में सवार होने से पहले और

दिमाग में ख्वाब के घर बनाने से भी पहले

मैं रात में, फिर चाहे रजाई वाली हो या

छत पर नीम के झोंकों वाली या

मड़ई में बारिश की आती बौछारों के बीच वाली नीदें

तब सिर्फ मैं सपने देखता था, वह भी खूब ढ़ेर सा,

थोक के भाव में, पर जितने भी सपने देखता था

सब मेरे अपने थे, सगे जैसे, नहीं, एकदम सगे थे

सब मेरे गाँव या घर के और ज्यादा से ज्यादा बारात में

जब दूल्हा कार में बैठता और औरतें कार के ऊपर

न्योछावर करती लेमनचूस,बताशे और पैसे

मैं उन्हें बीनने के सपने देखता और मेरा मन करता

कल फिर यही सपना आ जाए, पर दूसरी रात

सपना करवट की तरह बदल जाता


मैं चोर तो नहीं था, पर बचपन में, दूसरे के खेतों से

आलू चुराने, गाजर उखाड़ने, गन्ना तोड़ने और बाद में

पंडित बाबा के आम के पेड़ से

चोरी से आम तोड़ने के सपने देखता

हां, एक सपना और

मुझे अक्सर बाग से सड़क की तरफ आने पर

एक हाथी मेरे पीछे तेजी से आता और मैं

जान बचाने के लिए दौड़ता, पर दौड़ नहीं पाता

कई बार जब डर से मेरी आंखे खुल जाती

और मर जाता अकाल मौत ही वो सपना

साथ ही मर जाते हाथी सहित

वह सारे के सारे डर वाले दृश्य


हां, दो-तीन बार मेले में जिलेबिया

और चाट खाने के भी सपने देखे थे

यह सपने सच भी हो गए थे जब मैं

कुछ ही दिनों बाद मकर संक्रांति के मेले में

गंगा जी नहाने गया था,

पर बाद में वह सपने नहीं आए

कई बार मैंने गंगा जी और शंकर भगवान को

उस सपने के लिए मनाया था, पर गंगाजी,

शंकर भगवान मेरी चालाकी समझ गए थे शायद


हां, तो मैं कह रहा था मुझे गांव से शहर आकर

19 साल हो गए थे, इन 19 सालों में मैंने

पहली बार ख्वाबों की जगह, सपने देखे

वह भी अपने गांव के, तब से मेरा मन

अंदर ही अंदर कुछ अच्छा सा,

या अच्छा जैसा महसूस कर रहा था, सच पूछिए तो
,
मैं ख्वाब देख-देख कर ऊब सा गया था

बड़े-बड़े बंगले, बड़ी महंगी गाड़ियों के काफिले,

बड़ा मंच, ढेर सारे आस-पास मड़राते लोग

ढेर सारा शोर और साथ ही ढेर सारी झूठी शेखियां

और बड़बोलापन

कई बार लकदक कपड़ों में जब घर से

ख्वाब पकड़ने निकलता तो खुद को ही

भारी-भारी सा महसूस करता

लगता मुझ से ज्यादा वजन इन

लकदक कपड़ों का हो गया है

पर आज मैं रुई की तरह हल्का और

उड़ता हुआ महसूस कर रहा हूं

ख्वाब से आगे मेरे सपने फिर आ पहुंचे हैं


मैंने देखा - मैं आलू खोदकर कर लाया हूं

कउड़ा की आग में भूनकर नमक मिर्च के साथ खा रहा हूं

हां, पर अपने ही खेत से, चोरी से नहीं,

ज्यादा गरम आलू खाने से जीभ जल गई है

नाक के अगल-बगल में कालिख लग गई है

अम्मा इशारे से बता रही है और मैं अनसुना करके

अम्मा से लोटा मांग रहा हूं

सामने कोल्हू में गन्ने की पेराई से 

रस की धार थामने के लिए

आलू के साथ गन्ने का रस कब पिया था

कल के सपने के सिवा अब याद नहीं

आज मुझे लगा है कि मैं आज ही जागा हूं

19 सालों से सो रहा था

जिंदगी को ख्वाब नहीं सपने चाहिए

अब मैं समझ गया हूं

आलू के साथ गन्ने का रस ही सहज जीवन है

अलविदा शहर, ख्वाबों के शहर,

मैं वापस अपने सपनों के गांव जा रहा हूं

 अलविदा शहर


पवन तिवारी

सम्पर्क -7718080978

poetpawan50@gmail.com



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