भोपाल के राष्ट्रभाषा
प्रचार समिति मध्य प्रदेश के हिंदी भवन में ‘’हिंदी बने राष्ट्रभाषा अभियान’’ में हुए समारोह में दिया हुआ मेरा वक्तव्य प्रस्तुत
है.... शायद मेरे इस वक्तव्य से हिन्दी प्रेमियों को कुछ लाभ हो............................ इस अवसर पर प्रख्यात प्रख्यात हिन्दी सेवी एवं पत्रकार वेद प्रताप वैदिक जी, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति ब्रजकिशोर कुठियाला जी, भोज विश्वविद्यालय के कुलपति तारिक जफर जी जैसे विद्वान मंच पर विराजमान थे.
२० /१०/२०१६ भोपाल नगर के हिन्दी भवन का सभागृह
समय दोपहर ३.३० बजे
आदरणीय मित्रों एवं भोपाल के सभी हिन्दी
प्रेमियों, आज आप से मिलना एक पवित्र
उद्देश्य से हुआ है. जिसका श्रेय भाई विजय कुमार जी एवं
आदरणीय कैलाशचंद्र जी को जाता है.जिन्होंने ‘’हिंदी बने राष्ट्रभाषा अभियान’’ के लिए हिंदी भवन
में कार्यक्रम रखा. मैं पवन तिवारी आप के नगर में आपका
स्वागत करता हूं. अभिनंदन करता हूं. भाई
बिजय ने ‘’हिंदी बने राष्ट्रभाषा अभियान’’ प्रारंभ तो कर दिया
है किंतु इसमें आप सभी के समर्थन के बिना इस हिंदी के अश्वमेध का पूर्ण होना संभव
नहीं है. मध्य प्रदेश की धरती हिंदी के महान पुत्रों की धरती
है. जिनमें माखनलाल चतुर्वेदी, परसाई
जी, नरेश मेहता जी, भवानी प्रसाद मिश्र
जी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, ओशो रजनीश,
गिरजा कुमार माथुर के योगदान को भला कौन विस्मृत कर सकता है.पत्रकारिता के विराट पुरुष राहुल बारपुते जी, राजेंद्र
माथुर जी, प्रभाष जोशी जी और हिंदी संघर्ष के राष्ट्रीय
प्रतीक श्री वेद प्रताप वैदिक का हिंदी और हिंदी पत्रकारिता में अतुल्य योगदान है. जां निसार अख्तर और जावेद अख्तर भी
इसी माटी के बेटे हैं. दुष्यंत कुमार भले
उत्तर प्रदेश में पैदा हुए किंतु जब वे भोपाल में दूरदर्शन के सहायक निर्माता बनकर
आए. तब ताज भोपाली
और कैफ भोपाली का गज़लों में राज था. हिंदी में
गज़लों का डंका तब दुष्यंत कुमार ने भोपाल से ही बजाया. १०वाँ
विश्व हिंदी सम्मेलन इसी नगर में पूरी गरिमा के साथ संपन्न हुआ. आप में और आप की इस मिट्टी में हिंदी
को उसका सही सम्मान दिलाने की क्षमता है. इसलिए
हम आपके पास आए हैं. मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है कि आप
हिंदी भाषा अभियान में हर प्रकार का सहयोग देंगे. भाई विजय
कुमार ने मुझे प्रस्तावना की जिम्मेदारी है तो मैं थोड़ा हिंदी के आंदोलन के
इतिहास और भाषा से जुड़े कुछ विषय पर भी कुछ कहना चाहूंगा. इससे
हमें हिंदी आंदोलन के उस लक्ष्य को प्राप्त करने, समझने में
एवं नीतियां बनाने में सहजता होगी.
आदरणीय मित्रों पहली बात यह कि हमें अपनी भाषा को लेकर गर्व का भाव रखना और
प्रदर्शित भी करना चाहिए.तभी हम अपनी भाषा का
खुलकर प्रयोग करेंगे.हमें सिर्फ बातों से ही नहीं वरन आचरण
से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को उतारना होगा. इसका आरम्भ
स्व और स्वपरिवार से करें. हिंदी में हस्ताक्षर करें.जब भी अपना दूरभाष लिखें देवनागरी में लिखें. जैसे- ७७१८०८०९७८ प्रातः, संध्या, दोपहर और रात्रि का
अभिवादन अपनी भाषा में करें. शुभ प्रभात, शुभ अपराह्न,शुभ संध्या और शुभ रात्रि. बेटा अंकल को हाय करो, के स्थान पर चाचा जी को ‘नमस्ते’ करिए. दूसरी बात अंकल
को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल वाली पोयम सुनाओ वाला गर्वित अंदाज वास्तव में गर्व के
बजाय शर्मनाक है. उसके स्थान पर महान हिंदी कवि हरिऔध जी की
प्रसिद्द कविता ‘उठो लाल अब आंखे खोलो, पानी लाई हूं मुंह धो लो. बीती रात कमल दल फूले,
उनके ऊपर भंवरे झूले. जैसी कविता सिखाइए.
तो भी हिंदी की सेवा होगी. भाषा जितनी अधिक
व्यावहार में होगी.उतनी ही सरल और प्रवाहमय होगी.उपयोग बंद तो कुछ दिनों में क्लिष्ट और फिर लुप्त हो जाएगी.
हिब्रू भाषा के बारे में आप लोगों ने
सुना है.. या जानते हैं.. यदि नहीं,
तो भी कोई बात नहीं. मैं हिब्रू की बात आज
आपके सामने इसलिए करना चाहता हूं कि इस हिब्रू की कहानी हिंदी के लिए, हमारे लिए प्रेरणा दायक है.हिब्रू इस्राइल की
राष्ट्रभाषा है.किंतु जब 14 मई 1948 में इजराइल स्वतंत्र हुआ तो फिर
हिब्रूकी दशा संस्कृत जैसी थी. भाषा
विज्ञानियों ने हिब्रू को मृत भाषा की सूची में डाल दिया था, किंतु वहां के राष्ट्राध्यक्ष ने अपनी भाषा हिब्रू लागू करने के लिए जब
अपनी संसद में विचार-विमर्श किया तो तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए जो राय उभर कर
आयी कि हिब्रू को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए इस २० वर्ष का समय जाएगा. तो वहां के राष्ट्राध्यक्ष ने कहा
कि समझ लीजिए 20 वर्ष आज ही समाप्त हो गए और आज से ही हिब्रू हमारी राष्ट्रभाषा है. उस
समय इजराइल की जनसंख्या 40
लाख के करीब थी और उन्होंने 4000000 लोगों को हिब्रू सिखाने की व्यवस्था
की और सिखा कर दम लिया. इससे हमें यह समझ में आता है कि शासन में इच्छाशक्ति
हो तो कुछ भी असंभव नहीं. केंद्र में मोदी जी की सरकार है. हिंदी का प्रयोग
भी खूब करते हैं. पर एक घटना ने मुझे निराश कर दिया. शायद आप लोगों को याद हो 20 जून 2014 को राजनाथ सिंह ने एक बयान दिया- हिंदी में कामकाज को बढ़ावा देने के लिए जो आदेश पारित हुआ है. वह सिर्फ हिंदी राज्यों के लिए है. इससे पहले राजभाषा
विभाग ने सभी मंत्रालयों व विभागों को पत्र लिखा था कि हिंदी में कार्यों को
बढ़ावा दें. फेसबुक जैसे माध्यमों पर भी हिंदी
में विचार रखें. करुणानिधि और जयललिता के राजनीतिक विरोध के कारण केंद्र
सरकार तुरंत पलट गई.यहाँ
इच्छा शक्ति और सूझ बुझ की आवश्यकता थी. केंद्र सरकार दक्षिण
के राज्यों से पत्राचार के लिए अनुवादक रख सकती थी. आपस में बातचीत
कर सकती थी. कोई रास्ता शायद निकलता, किंतु
सरकार ने तुरंत हथियार डाल दिए और आदेश वापस ले लिया. हिंदी का
विरोध सामाजिक नहीं बल्कि राजनीतिक है इसलिए फूंक-फूंक कर आगे बढ़ने की आवश्यकता है. हिंदी
को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु इच्छाशक्ति की आवश्यकता है. इस मामले
में हम तुर्की के प्रथम राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा से सीख सकते हैं. जिन्होंने सत्ता संभालते ही अरबी को हटाकर तुर्की भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित किया. वे सड़कों पर निकल कर लोगों को तुर्की पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते एवं
स्वयं पढ़ाते भी . इसीलिए यदि प्रधानमंत्री जी व सरकार निश्चय कर लें
तो असंभव नहीं. पर अपनी भाषा व राष्ट्र के लिए निर्मल भाव होना जरूरी है.
मुझे गया प्रसाद शुक्ल स्नेही की वो पंक्तियां याद आ रही हैं-
''जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमे रसधार नहीं,
हृदय नहीं वह पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं''.
शुक्ल जी की एक और सशक्त
रचना है जिसे आप कुछ दिनों से नारे के रूप में जानते हैं. शीर्षक है ''दिन अच्छे आने वाले
हैं'' इससे हिंदी के अच्छे दिन आने की हम प्रेरणा ले सकते
हैं. पंक्तियां देखिए-
जब दुख पर दुख हों झेल रहे.
बैरी हों पापड बेल रहे
तो अपने जी में यह समझा
दिन अच्छे आने वाले हैं.
आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने भी लिखा कि -
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल.
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को सूल.
मित्रों शायद आप को याद हो हिंदी का पहला समाचार पत्र उदंड मार्तंड कोलकाता
से 30 मई 1926
को प्रकाशित हुआ था और उसके संपादक पंडित जुगल किशोर शुक्ल थे. पर उस समाचार पत्र भाषा की शैली मध्यप्रदेशीय थी. आपके
नगर में ही मध्य प्रदेश का हिंदी का पहला अटल बिहारी बाजपेई हिन्दी विश्वविद्यालय है .पत्रकारिता एवं संचार का सबसे बड़ा एवं चर्चित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता
एवं जनसंचार विश्वविद्यालय भोपाल में ही है. ऐसे
में आपका साथ, समर्थन एक नया इतिहास बनाएगा. हमें प्रतिपल सजग रहना होगा. हिंदी का नुकसान वर्तमान
हिंदी पत्रकारिता भी काम नहीं कर रही है. भाषा की एक जिम्मेदारी
पत्रकारों की भी है. बीते अप्रैल में ही आप
के नगर भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति श्री बृजकिशोर
जी ने विश्व विद्यालय के एक सर्वेक्षण में मिली जानकारी के आधार पर कहा कि-
सिर्फ 1
महीने में हिंदी के 8 समाचार पत्रों में 15737 अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग, क्षमा
कीजिए, प्रयोग नहीं, मैं इसे हस्तक्षेप
कहूंगा. इस पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी ने भी चिंता जताई थी. इस पर बाकायदा बैठक भी हुई थी. जिसमें कई नामी पत्रकार
भी शामिल थे. ऐसे में हमारे पत्रकार भाइयों की भी जिम्मेदारी
है कि वह तभी विदेशी भाषा के शब्दों को उधार लें. जब हमारी भाषा में वे शब्द उपलब्ध न हों. एक पाखंड प्रचारित किया जाता है कि विदेशी भाषा सर्वग्राही
है. वह सभी भाषा के शब्दों को खुद में समाहित कर लेती है.
ऐसे में मित्रों मेरा कहना यह है कि जिस भाषा की शब्द परंपरा सीमित है.
जो हमारी भाषा की अपेक्षा निर्धन है. तो उसे उधार
लेना ही पड़ेगा. दूसरी बात, जो शब्द उनकी भाषा में उपलब्ध नहीं हैं वही शब्द वे लेते हैं जैसे खटिया, लिट्टी-चोखा. पर हम उनके ऐसे शब्दों को हिंदी में जबरदस्ती ठूंसते हैं जिनके हिंदी में शब्द सहज
ही उपलब्ध हैं. जैसे- हाई कोर्ट,
स्टूडेंट, स्टेट, फैमिली,
मिनिस्टर, रोड, कोर्ट,
इनकम टैक्स,लेडिस इन तमाम शब्दों के हिंदी में
सहज शब्द उपलब्ध हैं एक शीर्षक देखिए हिंदी समाचारपत्र का नेशनल कबड्डी प्लेयर की वाइफ
ने किया सुसाइड. एक दूसरा शीर्षक देखिए- गेस्ट टीचर को 3से9 परसेंट तक की वेटेज. अब
आप ही बताइए इसमें कितनी हिंदी है. हिंदी के पत्रकार भी मेहनत
नहीं करना चाहते. यह दुखद है और भयानक भी . हिंदी फिल्मों का नाम अक्सर हिंदी के विकास के
लिए लिया जाता है. पर इन्होंने कहीं अधिक
हिंदी को हानि पहुंचाइ. अब हिंदी फिल्मों के शीर्षक से लेकर सभी
कलाकारों व तकनीशियनों के नाम भी अंग्रेजी में होते हैं. भाषा
भी अंग्रेजी मिश्रित होती
है . हिंदी फिल्मों के कुछ नाम देखिए- पेज थ्री, विकी डोनर, पाटनर,
माई नेम इज खान, नो वन किल्ड जेसिका, थ्री
इडियट आदि. तीन बेवकूफ थ्री इडियट से बुरा नाम नहीं होगा .यह सब मैं इसलिए बता रहा हूं कि हिंदी वालों ने जिनका घर हिंदी से ही
चलता है उन्होंने जितना हिंदी का नुकसान किया उतना किसी ने नहीं किया है. मेरा एक सुझाव है कि कम से कम हिंदी भाषी राज्य तो पूर्णतया हिंदी में कार्य करें. विशेष रूप से शिक्षा, रोजगार और न्याय में. बाकी तो धीरे-धीरे सब पटरी पर आ जाएगा. मित्रों हिंदी का राष्ट्रभाषा अभियान के साथ-साथ हमें भारतीय भाषाओं के हित व संरक्षण की बात करने के साथ-साथ उनके विकास वह सम्मान के लिए भी गंभीर प्रयास करते रहना होगा. किसी भी भाषा भाषी को हिंदी अभियान से यह नहीं लगना चाहिए कि हिंदी का उत्थान उनकी भाषा के लिए नुकसान देह है. हमारी हार्दिक इच्छा है कि तमाम भारतीय भाषाओं को सम्मान
मिले. लोग विदेशी भाषा के बदले कोई एक देशी भाषा सीखें.
फिर चाहे वह मराठी हो, तमिल हो, उड़िया हो या पंजाबी. राज्यों में प्रथम स्थान भारतीय
भाषाओं को मिले. फिर हिंदी और उसके बाद विदेशी भाषा वैकल्पिक
हो. भाषा के बारे में एक बार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था
कि- ''जैसे हम कश्मीर या भारत भूमि के किसी भी भूमि की रक्षा
में पूरा देश सामूहिक रुप से 1 इंच भूमि की रक्षा करता है. उसमें कोई एक प्रदेश नहीं बल्कि पूरा देश युद्धरत होता
है. वैसे ही अपने देश की कम बोली जाने वाली भाषा या बोली की रक्षा
के लिए पूरे देश को सन्नद्ध
रहना होना देश भक्ति है. भाषा उन्माद को
भाषा प्रेम नहीं कहते. हमें यह भी सदैव ध्यान में रखना होगा.
मित्रों एक बार
प्राध्यापक यू आर अनंतमूर्ति ने काशी विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग
में बोलते हुए कहा था- हम गैर हिंदी भाषी हिंदी
पढ़ने और व्यवहार के लिए तैयार हैं , लेकिन हिंदी भाषी लोग भी तो अंग्रेजी का त्याग करें. हम गैर हिंदी भाषी लोग अंग्रेजी छोड़ कर सिर्फ बेंगलूर
और अधिक से अधिक दिल्ली तक कर रह जाएं और आप अंग्रेजी से लैस होकर न्यू यॉर्क तक पहुंच जाएं. यह कैसे हो सकता है? न्यूयार्क का मोंह आप छोड़ दें तो हम भी अंग्रेजी छोड़ दें. दुकानों
से लेकर घर के द्वार तक हिंदी भाषी क्षेत्रों में नामपट्ट विदेशी भाषा में रहता है. इसलिए मित्रों पहले स्वयं से ईमानदार पहल करनी होगी.
विदेशी भाषा के संदर्भ में एक भ्रम यह है कि यह विश्व भाषा है और इसके
बिना विकास संभव नहीं है. यह भी एक निरा झूठ और षड्यंत्र है . चीन, जापान, रूस, इटली, कोरिया, इजरायल, स्पेन ,स्विट्जरलैंड,फ्रांस और जर्मनी जैसे अनेक देश हैं जहां समस्त सरकारी कामकाज विद्यालयों, महाविद्यालयों में पढ़ाई-लिखाई उनकी अपनी भाषा में होती है. उधार की भाषा में हमारी तरह काम नहीं करते और विकास के प्रत्येक क्षेत्र में झंडा गाड़े हुए हैं.
मित्रों अब मैं बात करूंगा इससे पहले हुए प्रयासों की. पर वे प्रयास कितने सफल हुए या नहीं, इस पर मत जाइए.
वे किन कारणों से पूर्णता को प्राप्त नहीं हुए. उन कारणों
पर ध्यान देना है और उन्हें दूर करना है. हिंदी को राष्ट्रभाषा
बनाने के लिए सर्वप्रथम मेरे गृह जनपद अंबेडकर नगर अकबरपुर में जन्मे महापुरुष डॉक्टर
राम मनोहर लोहिया जी ने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन 1957 में शुरू किया. मैं इसे हिंदी का 1857 मानता हूं. जबकि 1965 तक के लिए हिंदी के साथ सह
भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रावधान कर दिया गया था. 1962- 63
में जनसंघ भी समर्थन में आ गया था. पूरे देश में हिंदी की
लहर चल पड़ी थी. किंतु दक्षिण भारत खासकर तमिलनाडु में अन्नादुराई के
नेतृत्व में हिंदी विरोधी आंदोलन तेज हो गया. उन्होंने दक्षिण
भारतीय भाइयों को बरगलाया कि अंग्रेजी की जगह हम पर हिंदी थोपी जाएगी. धीरे-धीरे भाषाई आन्दोलन राजनीति का शिकार हो गया. हिंदी
विरोधी और अंग्रेजी हटाओ आंदोलन ने कई निर्दोषों की जान ले ली.आंदोलन हिंसक हो गया. 1961 में मद्रास और कोयंबटूर में लोहिया जी की सभा के
दौरान उन पर पत्थर तक फेंके गए. इसका दुष्परिणाम
ये हुआ कि अंग्रेजी नेहरू की कमजोरी के कारण संविधान में संशोधन कर हिंदी के साथ अनिश्चित
काल के लिए सहराजभाषा के स्थान पर आसीन हो गई .लोहिया जी फिर भी प्राण-प्रण से लगे रहे. अंग्रेजी की आवाज कमजोर पड़ने लगी थी. कि तभी दुर्भाग्य से 1967 में लोहिया जी का देहावसान हो गया. जिससे इस आंदोलन को भारी क्षति हुई. दूसरा कोई व्यक्तित्व
था नहीं इस स्तर का जो इस आंदोलन को आगे ले जा
सके. इस आंदोलन में कई महत्वपूर्ण बातें लोहिया जी ने कही.
जो आज भी हिंदी के संदर्भ में प्रासंगिक है. किंतु
जब आंदोलन राजनीति का शिकार हो गया तो इन सार्थक बातों को कहीं स्थान नहीं दिया गया.
जैसे - मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी ज्ञान पर लजाएँ नहीं बल्कि गर्व करें. इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें.
जिनके मां-बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज
रहे हैं. हिंदी के लिए लोहिया जी पूरे प्राण प्राण से
लडे.उन्होंने स्वभाषा के महत्व और गौरव को समझाया.उन्हें नमन. हमें इससे यह सीखना
है कि ये आन्दोलन सौहार्दपूर्ण हो.’’अंग्रेजी हटाओ’’ का प्रयोग हम नहीं
करेंगे.जहाँ भी जाएँ पहले वहां ही भाषा के उत्थान व सम्मान की बात करेंगे.उसके बाद
फिर हिन्दी की बात.
मित्रों एक और महापुरुष की हिन्दी के
सन्दर्भ में बात करना जरुरी है.हिन्दी यात्रा साहित्य के पितामह और हिन्दी के
अनन्य प्रेमी महापंडित राहुल सांकृत्यायन. वे अनेकानेक भाषाओँ के ज्ञाता थे.पर
जीवन में,लेखन में सदैव हिन्दी का प्रयोग किया.उन्होंने अपने एक लेख में जिसका शीर्षक हिंदी के विभीषण है में राहुल जी लिखते हैं
- जो आजाद भारत में भी अंग्रेजी का मोह नहीं छोड़ पा रहे और पैसा खर्चा करके
अंग्रेजी पढ़ते हैं वह हिंदी को क्यों पसंद करने लगे. ऊंची नौकरियों की
प्रतियोगिता के लिए हिंदी या प्रादेशिक भाषाओं को माध्यम मान लेने पर “सब धान 22 पसेरी हो जाएगा” ।
कान्वेंट की घुट्टी पिलाने वाले या यूरोपियन स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों के पास
ही प्रतिभा की इजारेदारी है यह कोई नहीं मानेगा . हिंदी में प्रतियोगिता होने पर
उनके लिए सफलता अत्यंत संदिग्ध है .इसीलिए उनके माता-पिता जिनमें देव -
महादेव से लेकर बड़े-बड़े नौकरशाह तक शामिल हैं कभी पसंद नहीं करते कि अंग्रेजी
हटे. इस लेख यह स्पष्ट सन्देश मिलता है किजिस दिन
हिन्दी व भारतीय भाषाएँ पेट की भाषा बनीं, सत्ता आम आदमी ,किसान ,मजदूर के बेटों
के हाथों में होगी.
इसलिए मेरा मत है कि
राज्यों में राज्य की भाषा प्रथम हो और हिन्दी दूसरी भाषा हो .अंग्रेजी के साथ
चीनी,फ्रांसीसी,जापानी, रूसी आदि समान रूप से वैकल्पिक भाषा हों क्योंकि चीन ,रूस
,फ़्रांस ,जापान जैसे देश भी हमारे लिए कम
महत्वपूर्ण नहीं हैं.खासकर चीन,क्योंकि चीन हमारा कड़ा प्रतिद्वंदी है.इसलिए दुश्मन
या प्रतिद्वन्दी की चाल जानने के लिए उसकी भाषा जानना आवश्यक है.उसकी बात एक बार सुन
भी लें किन्तु यदि समझ में न आये तो क्या फायदा.
ऐसे में मित्रों सबसे पहले शिक्षा ,रोजगार एवं स्वप्रयोग
की भाषा हिन्दी को बनाना होगा.जब आप अपनी भाषा में पढेंगे और अपनी भाषा में
परीक्षा देंगे तो चुनकर आने पर अपनी ही भाषा में संवाद भी करेंगे.फिर किसी को
हटाने या हटो कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी..वे कुछ समय में स्वयं ही बेदखल हो
जायेंगे.पर ये आसान भी नहीं.इसके लिए शासन –प्रशासन ,आम –ख़ास सबकी भागीदारी चाहिए और
तब होगा.