चवन्नी का मेला

यह ब्लॉग अठन्नी वाले बाबूजी उपन्यास के लिए महाराष्ट्र हिन्दी अकादमी का बेहद कम उम्र में पुरस्कार पाने वाले युवा साहित्यकार,चिंतक,पत्रकार लेखक पवन तिवारी की पहली चर्चित पुस्तक "चवन्नी का मेला"के नाम से है.इसमें लिखे लेख,विचार,कहानी कविता, गीत ,गजल,नज्म व अन्य समस्त सामग्री लेखक की निजी सम्पत्ति है.लेखक की अनुमति के बिना इसका किसी भी प्रकार का उपयोग करना अपराध होगा...पवन तिवारी

सोमवार, 24 मार्च 2025

बेकार,फ़ालतू और ग़ैर ज़रूरी




जिन्हें दुनिया समझती है-

बेकार, फ़ालतू या

ग़ैर ज़रूरी काम;

वे मेरे लिए

ज़रूरी कामों में शामिल हैं!

 

मेरे लिए मित्रों से

अकारण बतियाना

बेहद ज़रूरी काम है!

 

शाम को या मन हुआ तो

दोपहर में भी,

अकेले टहलते हुए

पहाड़ पर जाकर

नीचे बहती हुई

नदी को देखना भी

मेरे ज़रूरी कामों में शामिल है!

 

खेत में जाकर उसे निहारना,

उसकी मिटटी को सूँघना,

मेड पर बैठकर, दूब को नोचना

और कभी-कभी

मुंह में रखकर चबाना;

और महसूस करना उसका स्वाद,

यह भी मेरे लिए जरूरी काम है !

 

 बच्चों को खेलते हुए निहारना,

उनकी बातें सुनना,

अखबार पढ़ना, पुस्तकें पढ़ना,

यह सब मेरे लिए जरूरी काम हैं!

 

हां, फिल्म देखना

मेरे लिए महत्वपूर्ण काम है!

मैं योजना बनाकर देखता हूँ फिल्म,

लोगों को यह मेरे सारे काम

काम नहीं लगते, परंतु

यह सब मेरे लिए काम हैं!

 

और मेरे लेखन को तो

बिलकुल ही काम नहीं मानते!

जब कभी मेरे मुंह से

निकल जाता है- ‘लेखक हूँ’

तो वह कहते हैं-

वो तो ठीक है, पर

काम क्या करते हो!

तो मैं कहता हूँ-

लेखन मेरे लिए

सबसे महत्वपूर्ण काम है!

न लिखूँ तो- ‘मैं मर भी सकता हूँ’ !

 

इस तरह मैं

दुनिया के लिए

ग़ैर ज़रूरी होते हुए भी

अपने लिए एक ज़रूरी

और व्यस्त आदमी हूँ!

 


बुधवार, 19 मार्च 2025

जग ने ठुकराया है प्रभु जी


जग ने ठुकराया है प्रभु जी

तुम  भी  क्या  ठुकराओगे

जैसा  भी  हूँ  शरणागत हूँ

तरस   अब भी खाओगे

 

अधम रहा हूँ बड़ पापी हूँ

दोष   सभी  स्वीकार  है

क्षमा करो प्रभु शरण में ले लो

आप  का  बस आधार है

विपदा से अब धैर्य चूकता

बोलो  ना   कब  आओगे

तरस न  अब भी खाओगे

 

प्रारब्धों  का  फल  पाया हूँ

छल ही छल औ दुःख पाया हूँ

अंतिम  आस  तुम्हारे  द्वारे

नाम  तुम्हारा  ही  गाया हूँ

दुःख के बादल  घेर लिए हैं

सुख  के  दिन कब लाओगे

तरस   अब  भी खाओगे

 

जगत खेवइया तुम बड़ भइया

पिता   तुम्हीं   सर्वेश्वर  हो

एक अभिलषित कृपा तुम्हारी

इष्ट  तुम्हीं  मेरे  ईश्वर हो

धाय  गरुड  को ले आये थे

मेरे   लिए   कब  धाओगे

तरस   अब भी खाओगे

 

अमंगल को  मंगल कर दो

पीड़ा हर दुःख सुख कर दो

हे महावीर  भुजा को थामों

अपनी कृपा  से तर कर दो

जब भी आओगे प्रभु मुझको

निज   चरणों  में  पाओगे

तरस   अब भी  खाओगे

 

पवन तिवारी

१९/०३/२०२५

  


सोमवार, 13 जनवरी 2025

प्यार क्या इस तरह निभाओगे



प्यार क्या इस तरह निभाओगे

ख़ास  मौकों पे दिल दुखाओगे

याद  आते  हो , नहीं  आते  हो

बिन बुलाये  क्या नहीं आओगे


यूँ   अकेले   में   तो   जताते  हो

सामने   सब  के  भी  जताओगे

कहके हाँ फिर से मुकर जाते हो

इस  तरह से भी क्या सताओगे


साथ   में    मेरे    गुनगुनाओगे

बाँह   में   बाँह   डाले   गाओगे

उम्र है  प्यार  की  किये  जाओ

ये समय  फिर कहाँ  से पाओगे


फेरे   कब   साथ  में  लगाओगे

सुनती  हो!  ऐसे कब बुलाओगे

प्यार   है,  जान  गयी आगे क्या

प्यार   को   ज़िन्दगी  बनाओगे


पवन तिवारी

१३/०१/२५          


मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

ज़िंदगी छूटती जा रही हाथ से


ज़िंदगी  छूटती  जा  रही  हाथ से

बात बनती नहीं आज कल बात से

किस फरेबी ने भी चाल कैसी चली

सारे  संबंध  लेकर  गया  घात से

 

बिन किसी बात के सब छिटकते गये

इक सहज बात पर भी बिदकते गये

कुछ समझ पा रहा था नहीं क्या हुआ

देखते – देखते   हम  बिखरते  गये

 

द्वार  आशा  के सब बंद यों हो गये

निर्गत  काव्य  से  छंद ज्यों हो गये

मुँह के बल गिरती जाती रही कोशिशें

जो भी अच्छा किये दण्ड क्यों हो गये

 

फिर अचानक ही सब ठीक होने लगा

मेरा  बोझा  कोई  और  ढोने  लगा

फिर समझ आया खेला था सब काल का

ऐसी खुशियाँ मिली हँस के रोने लगा

 

पवन तिवारी 

१३/१२/२०२४     


शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

जब सब तुमसे भाग रहे हैं



जब सब तुमसे भाग रहे हैं,

सब तुमको अनसुना हैं करते,

हाथ जोड़ कर जो मिलते थे;

देख के वे अनजान हैं बनते!

नम्बर जो पहले मांगे थे,

वे न उठाते फोन तुम्हारे!

 

समय ने थोड़ा क्या मुँह फेरा,

बदल गये हैं सारे प्यारे;

समय नहीं इक जैसा रहता

अदला बदली चलती रहती!

कुछ भी स्थिर नहीं रहा है,

रिश्ते भी दिन रात के जैसे!

 

एक नहीं बदले हैं केवल

ध्यान दिया क्या देव तुम्हारे!

उनसे कह दो, वे सब सुनते;

कभी न वे उपहास उड़ाते!

जब भी जाओगे तुम मिलने

वहीं मिलेंगे, जहाँ मिले थे.

 

सदा सुने थे, सदा सुनेंगे,

बस उनसे स्थाई नाता!

शेष है जो भी कुछ माया है,

इतना समझ लिया भी जिसने

फिर तो दुःख भी गाया है.

 

पवन तिवारी

१२/१२/२०२४  


सोमवार, 9 दिसंबर 2024

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में


पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

राम विराजें सीता संग जिस धाम में

त्रिविध ताप को हरने वाले

सब  गुण हैं जिस नाम में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

जहाँ  कभी न  युद्ध हुआ है

मन सरयू सा  शुद्ध हुआ है

जहाँ  लोग   मर्यादित  होते

जग  बसता  जिस  राम में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

बजरंगी  जिस  गढ़ी  बसे हैं

मंदिर – मंदिर  राम  रचे  हैं

जिस नगरी के सुर गुण गायें

मंत्र   उठें   हर   याम  में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

जन जन का मन हरस रहा है

प्रेम  अवध  में  बरस रहा है

कुछ दिन  तो  आनंद उठाओ

हमरे   राम   के   धाम  में

पाहुन आओ अवध पुरी मम ग्राम में

 

पवन तिवारी

०९/१२/२०२४

   

 


शनिवार, 7 दिसंबर 2024

अर्थ


 



आज कल कुछ ज्यादा ही

बदल दिया है

अर्थ ने खुद से अधिक औरों को,

अब यही देखो-

अर्थ ने ज़िन्दगी का

अर्थ बदल दिया है!

अर्थ न हो तो ज़िन्दगी का

जैसे अर्थ ही नहीं रह गया है!

अर्थ न हो तो लोग

जाने क्या - क्या

अर्थ लगाते हैं ? और

अर्थ हो तो अर्थ ही अर्थ,

अर्थ के जाने कितने अर्थ !

और न हो तो,

कई बार अर्थ का अनर्थ !

अर्थ क्या - क्या

अनर्थ करता है ;होने पर

और न होने पर,

कि अर्थ का अर्थ ही

नहीं रह जाता !

या रहता है पर,

समझ में नहीं आता !

अर्थ का क्या अर्थ निकालें-

अच्छा या बुरा! फिर भी,

अर्थ का अर्थ तो है,

समझ आये या न आये,

पर अर्थ का अर्थ,

कम - ज्यादा बच्चे,

बूढ़े, महिला, खासकर

गरीब को सबसे ज्यादा

समझ में आता है !

अर्थ के कितने अर्थ हैं-

कोई नहीं जानता !

बस अर्थ जानता है-

अपना सही अर्थ !

शेष को मानता है-

अपने आगे व्यर्थ !

कोई व्यर्थ हो न हो,पर

अर्थ का अर्थ तो है,

इसे सब मानते हैं!

इससे अधिक

अर्थ का अर्थ क्या समझा...?

 

पवन तिवारी

०७/१२/२०२४   

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

खिड़की से निहारा



खिड़की से निहारा

तो देखा बाहर

बहुत कुछ रहा है,

कुछ ऐसा कि धड़ से

खिड़की बंद कर दिया !

और अंदर में कोई

जैसे- रो रहा है;

सिसक – सिसक कर !

और हाँ, ध्यान गया इधर

तो देखा बगल में

कोई सो रहा है !

जैसे मैं किसी को

पहचानता ही नहीं,

शायद खुद को भी !

इतना कुछ कहने पर

आप तो समझ ही गये होंगे

कि मैं क्या कह रहा हूँ ?

और यदि नहीं समझे

तो मैं इससे ज्यादा

बताऊंगा नहीं,

खैर, छोड़िये ! अच्छा ये बताइये-

अंदर से रोता हुआ आदमी

बाहर से हंसते हुए

कैसा लगता है ?



पवन तिवारी

३/१२/२०२४