स्वार्थ ने धृतराष्ट्र को अंधा किया
नाम को इतिहास में गंदा किया
स्वार्थ का वो क्रम है
बढ़ता जा रहा
लोगों ने संबंध को धंधा किया
सब लगे हैं अपनी बंदर
बाँट में
आ गये संबंध सो सब हाट में
चाह डल्ल्फ़ बेड की है
आराम की
कौन सोयेगा पुरानी खाट में
मेज कुर्सी पर पढ़े जो ठाट
में
बाप तो उनके पढ़े थे टाट
में
जीभें लपकें चाउमीनों की
तरफ
है कहाँ वैसा मजा अब चाट
में
पापा की अब डांट बंधती
गाँठ में
क्या मज़े थे बाबू जी की
डांट में
पुत्र कुछ ज्यादा ही
पिसते जा रहे
भार्या और माँ के दुर्गम पाट में
काल ने भी चाल ऐसी है चली
बंद संबंधों की होती हर गली
पुष्प खिलने की प्रतीक्षा
अब कहाँ
मसल देते लोग अब कच्ची
कली
पवन तिवारी
७/११/२०२५