सुबह की पुतरी पे धूप
जैसे ठहरी हो
दृष्टि पड़े लागे मुझे कूप जैसी गहरी हो
मेरा जग कैसा हो
सोचता कभी हूँ जब
स्वयं को अनाज पाऊँ तुम्हें
देखूँ डहरी हो
सागर की लहर जैसी लोच तुममें गहरी हो
यौवन में प्रेम का पताका लेके फहरी हो
तुम्हें देखूँ कांतिहीन कुंचित हो जाता
हूँ
मैं गंदे बर्तन सा
तुम जैसे महरी हो
अभावों में भोजन में
तुम जैसे तहरी हो
जीवन में मेरे तुम फूल
जैसे भहरी हो
गली - गली कितना पुकारा है हिय
मेरा
ध्वनि मेरी कम या कि तुम ही
कुछ बहरी हो
मैं हूँ देहाती
जी तुम जैसे
शहरी हो
मैं कच्ची नाली
सा तुम बड़की नहरी हो
तुम कुछ भी समझो पर समझा
हूँ मैं ऐसा
मैं हूँ कृषक
ठेठ तुम फसल
हरी
हो
पवन तिवारी
०१/०१/२०२३
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