मन था दूषित मिली तुम हुई शुद्धता
मूढ़ को प्राप्त जैसे हुई बुद्धता
लोग कहते आवारा नकारा भी थे
लोगों को मुझमें अब दिखती प्रतिबद्धता
जग के तानों ने मुझको किया त्रस्त था
मेरे उत्साह को भी किया
पस्त था
भाग्यवश तुम मिली या कि जैसा भी हो
एक बेचारा जीवन में
फिर व्यस्त था
प्रेम ने मार्ग मेरा
प्रशस्त किया
क्रूर गृह मेरे जितने थे अस्त किया
तुम ही लक्ष्मी तुम्हीं शारदा हो प्रिये
सारे अवरोधों को तुमने ध्वस्त किया
प्रेम जादू नहीं उससे भी
श्रेष्ठ है
प्रेम सारे गुणों में सहज ज्येष्ठ है
एक ओछे को इसने किया शिष्ट है
प्रेम पाकर लगा अब कि यथेष्ट है
पवन तिवारी
०६/११/२०२२
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जवाब देंहटाएंप्रेम जादू नहीं उससे भी श्रेष्ठ है
जवाब देंहटाएंप्रेम सारे गुणों में सहज ज्येष्ठ है
एक ओछे को इसने किया शिष्ट है
प्रेम पाकर लगा अब कि यथेष्ट है////
अत्यंत भाव-पूर्ण अभियक्ति प्रिय पवन जी 👌🙏
सादर आभार रेणु जी
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