अपने लोग पराये होते
और पराये अपने
जीवन में तो देख ही रहे
नींद में भी ये सपने
सच से पीछा छुड़ा रहे हैं
झूठ लगे हैं जपने
सर्दी के मौसम में भी कुछ
लोग लगे हैं तपने
जिन्हें कहे हैं अपना उनको
देख लगे हैं कंपने
जान बचाकर यूँ भागे कि
लगे जोर से ह्न्फने
छोटे-छोटे व्यवहारों में
जीवन लगा है खपने
घर की छोटी कलह लगी है
अखबारों में छपने
पवन तिवारी
१५/११/२०२२
आदरणीय,
जवाब देंहटाएंकृपया स्पेम चेक कीजिएगा और.मेरी लिखी आमंत्रण प्रतिक्रिया पब्लिश कर दीजिएगा।
कल.आपकी रचना लिंक की गयी है पाँच लिकं ब्लॉग पर।
जी,देखता हूँ , धन्यवाद श्वेता जी
हटाएंस्मैप में नहीं आया है ,फिर से भेजें .धन्यवाद
हटाएंअखबारों में छपना भी आसान कहाँ
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
धन्यवाद विभा जी
हटाएंसब बदल कर भयावह शक्ल इख्तियार कर रहा है।सार्थक रचना प्रिय पवन जी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रेणु जी
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