चिंता ने चिन्तन को मारा
अंदर साहस थोड़ा
हारा
फिर क्रोध का पथ कुछ सुगम हुआ
चढ़ आया मस्तक तक पारा
सुख के दिन स्वप्न हुए जैसे
उलझन में मन कि हुआ कैसे
फिर आय घटी बढ़ गये खर्चे
जोड़ने पड़े पैसे
पैसे
संख्या अपनों की घटने लगी
किच-किच आपस में बढ़ने लगी
संतोष घटा ईर्ष्या जागी
छाया रिश्तों पर
पड़ने लगी
चिंता जीवन को नष्ट करे
तन मन को पूरा भ्रष्ट
करे
इससे बचने का यत्न
सदा
अन्यथा सभी में कष्ट करे
संतोष करें
चिंतन कर लें
मन के गुल्लक खुशियाँ भर लें
आवश्यकता अभिलाषा
नहीं
इस मन्तर की उंगली धर लें
पवन तिवारी
०१/११/२०२२
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