ठंडी
की धूप लजाई
सी
आधी
- आधी मुस्काई सी
सबको
भाती सब ही चाहें
रहती
फिर भी सकुचाई सी
बिन
धूप लगे तन्हाई
सी
बिछड़े
तो विरह मिताई सी
अक्सर
कम आती पूस में है
जब
भी आती घबराई सी
देखो लगती तरुणाई सी
निखरी
निखरी अँगनाई सी
जाड़े
में धूप दिवाने सब
कुहरे
से चले लड़ाई सी
खेतों
में लगे रजाई सी
वह जीवनदायी माई सी
पीली
- पीली सरसो जैसी
हल्दी
में लगे नहाई
सी
जाड़े
की धूप नताई सी
हो इंतज़ार पहुनाई सी
इतनी
मोहक सुंदर लगती
लगती
है हुई सगाई
सी
पवन
तिवारी
०७/०९/२०२१
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