किसका
दिल किसका घर है
अनजाना
सा इक डर है
अपनी
सुध में हैं बेसुध सब
कुछ
न पता किसका दर है
तन लगता जैसे खर
है
अंदर
से जैसे तर है
बेमन
से बस चल रहे हैं
कोई
चिंता न फिकर है
बेबसी
से झुका सब सर है
लगता
नहीं कोई नर
है
चेहरे
से कुंठा है झरती
जिन्दगी
बस जिन्दगी भर है
जिन्दगी
जाती किधर है
कभी
इधर या कभी उधर है
जाल
हैं स्वारथ के फैले
ज़िंदगी
भी हुई जर्जर है
नेह
का केवल बचा नगर है
अपनाता
वह भी अगर है
इसलिए
आदमीयत बचा लो
खुद
को जीना यदि जी भर है
पवन
तिवारी
०३/०८/२०२१
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