आँसुओं
में समय सना सा
है
उर
कई दिन से अनमना सा है
कौन
अपना पराया कौन यहाँ
रिश्तों
का पर्दा कुछ घना सा है
झूठ
का लेप कुछ चढ़ा
सा है
और
सच तन के कुछ खड़ा सा है
योग
से बरखा झमक के आयी
लेप उतरा
बुझा पड़ा सा है
कौन
जग में धुला - धुला सा है
किसका
चेहरा सदा खिला सा है
धूप
औ छाँव जैसे दुःख - सुख है
कुछ
ना कुछ सबको ही गिला सा है
वक़्त
दुःख से लगे मिला सा है
टूटता
है नहीं किला
सा है
जिद्दी
हम भी हैं आदमी ठहरे
अपनी
ठोकर से दुःख हिला सा है
पवन
तिवारी
२३/०८/२०२१
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